श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 10 – विभूतियोग | भगवान की दिव्य शक्तियाँ और व्यापकता

 श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 10 – विभूतियोग | भगवान की दिव्य शक्तियाँ और व्यापकता

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 10 – विभूतियोग | भगवान की दिव्य शक्तियाँ और व्यापकता


📜 श्रीमद्भगवद्गीता – अध्याय 10 (विभूतियोग)

🔷 अध्याय 10–परिचय:

इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अपनी दिव्य विभूतियों (श्रेष्ठ शक्तियों) का वर्णन करते हैं।

वे बताते हैं कि सम्पूर्ण जगत में जो कुछ भी तेजस्वी, ऐश्वर्यशाली और प्रभावशाली है, वह उनका ही अंश है।

अर्जुन की श्रद्धा बढ़ाने हेतु वे स्वयं को ही वेद, ऋषि, देवता, नदियाँ आदि के रूप में प्रकट करते हैं।

यह अध्याय हमें ईश्वर की व्यापकता और उनके सर्वव्यापक स्वरूप का बोध कराता है।

🕉️ श्लोक 1 से 10 तक | हिंदी अनुवाद एवं सरल व्याख्या सहित

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🪷 श्लोक 1

श्रीभगवानुवाच —

भूय एव महाबाहो शृणु मे परमं वचः।

यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया॥

हिंदी अनुवाद:

श्रीभगवान बोले — हे महाबाहो अर्जुन! तू फिर से मेरे इस परम वचन को सुन, जिसे मैं तुझसे प्रेमपूर्वक तेरे हित के लिए कहता हूँ।

सरल व्याख्या:

भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि वे उसे फिर एक गूढ़ और दिव्य ज्ञान देने जा रहे हैं, क्योंकि वह उसे प्रिय है और वह उसके कल्याण की इच्छा रखते हैं।

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🪷 श्लोक 2

न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः।

अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः॥

हिंदी अनुवाद:

न तो देवगण और न ही महर्षिगण मेरी उत्पत्ति को जानते हैं, क्योंकि मैं ही सब देवताओं और महर्षियों का आदि (आरंभ) हूँ।

सरल व्याख्या:

भगवान कहते हैं कि उनकी दिव्यता इतनी महान है कि स्वयं देवता और ऋषि भी उन्हें पूरी तरह नहीं समझ सके, क्योंकि वे सभी भगवान से ही उत्पन्न हुए हैं।

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🪷 श्लोक 3

यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्।

असम्मूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते॥

हिंदी अनुवाद:

जो मुझे अजन्मा, अनादि और समस्त लोकों के स्वामी के रूप में जानता है, वह मोह से रहित होकर समस्त पापों से मुक्त हो जाता है।

सरल व्याख्या:

जो व्यक्ति भगवान को जन्म-मृत्यु से परे, सनातन और जगत के स्वामी रूप में जानता है, वह इस संसार के बंधनों से मुक्त हो जाता है।

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🪷 श्लोक 4

बुद्धिर्ज्ञानमसम्मोहः क्षमा सत्यं दमः श2मः।

सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च॥

हिंदी अनुवाद:

बुद्धि (बुद्धिमत्ता), ज्ञान, भ्रम से मुक्ति, क्षमा (क्षमा करने की शक्ति), सत्य (सच्चाई), संयम, शांति, सुख-दुःख, होना-न होना (अस्तित्व-अनस्तित्व), भय और निर्भयता – ये सभी मेरी ही विभूतियाँ हैं।

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सरल व्याख्या:

भगवान कहते हैं कि ये सभी गुण और भावनाएँ, जो मनुष्य में पाई जाती हैं, वे उनके दिव्य स्वरूप का हिस्सा हैं। बुद्धि से लेकर ज्ञान तक, क्षमा और सत्य से लेकर सुख-दुःख और भय से लेकर निर्भयता तक – ये सब उनकी दिव्य शक्तियाँ हैं। इससे पता चलता है कि परमात्मा हमारे जीवन के हर पहलू में व्याप्त हैं।

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🪷 श्लोक 5

अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः।

भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः॥

हिंदी अनुवाद:

बुद्धि, ज्ञान, मोहरहित स्थिति, क्षमा, सत्य, इंद्रियों का संयम, मन का नियंत्रण, सुख-दुःख, जन्म-मृत्यु, भय और अभय,

अहिंसा, समता, संतोष, तप, दान, यश और अपयश — ये सभी प्रकार के भाव मेरे ही द्वारा उत्पन्न होते हैं।

सरल व्याख्या:

भगवान कहते हैं कि जीवों में जो भी अच्छे या बुरे गुण होते हैं — चाहे वे मानसिक हों, नैतिक हों या भावनात्मक — वे सभी मुझसे ही उत्पन्न हैं।

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🪷 श्लोक 6

महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा।

मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः॥

हिंदी अनुवाद:

सप्त ऋषि और चार प्राचीन मनु मेरे ही मन से उत्पन्न हुए हैं; और इन्हीं से संसार की सारी प्रजा उत्पन्न हुई है।

सरल व्याख्या:

भगवान कहते हैं कि सृष्टि के आरंभ में जो महान ऋषि और मनु हुए, वे भी मेरी ही उत्पत्ति हैं, और उन्हीं से मानव जाति फैली।

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🪷 श्लोक 7

एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः।

सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः॥

हिंदी अनुवाद:

जो मेरी इन विभूतियों और योगशक्ति को तत्त्व से जानता है, वह अडिग भक्ति से मुझसे जुड़ जाता है — इसमें कोई संदेह नहीं है।

सरल व्याख्या:

भगवान कहते हैं कि जो व्यक्ति उनकी महिमा को सही ज्ञान के साथ समझता है, वह दृढ़ और स्थिर योग (भक्ति) में स्थित हो जाता है।

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🪷 श्लोक 8

अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते।

इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः॥

हिंदी अनुवाद:

मैं ही समस्त सृष्टि का कारण हूँ, मुझसे ही सब कुछ उत्पन्न होता है। यह जानकर ज्ञानी लोग मेरे भावपूर्ण भजन में लगे रहते हैं।

सरल व्याख्या:

भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं कि वे ही सृष्टि का मूल कारण हैं और यह जानकर ज्ञानीजन उन्हें भावपूर्वक भजते हैं।

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🪷 श्लोक 9

मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्।

कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च॥

हिंदी अनुवाद:

मेरे मन में लगे हुए और मुझमें जीवन को अर्पण किए हुए भक्त, आपस में मेरी ही बातें करते हैं और हमेशा आनंदित व तृप्त रहते हैं।

सरल व्याख्या:

सच्चे भक्तों का जीवन मुझमें ही रमा रहता है। वे एक-दूसरे से भगवान की चर्चा करते हुए खुशी और शांति का अनुभव करते हैं।

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🪷 श्लोक 10

तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।

ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते॥

हिंदी अनुवाद:

जो भक्त प्रेमपूर्वक निरंतर मेरा भजन करते हैं, उन्हें मैं ऐसा बुद्धियोग देता हूँ जिससे वे मुझे प्राप्त कर लेते हैं।

सरल व्याख्या:

भगवान कहते हैं कि जो सच्चे प्रेम से निरंतर भक्ति करते हैं, उन्हें वे स्वयं ऐसा ज्ञान और विवेक प्रदान करते हैं जो उन्हें भगवान की प्राप्ति की ओर ले जाता है।

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🪷 श्लोक 11

तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः।

नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता॥

हिंदी अनुवाद:

उन पर विशेष कृपा करते हुए, मैं उनके हृदय में स्थित होकर, अज्ञानजनित अंधकार को ज्ञान के प्रकाश से नष्ट कर देता हूँ।

सरल व्याख्या:

भगवान कहते हैं कि जो भक्त प्रेमपूर्वक भजन करते हैं, उनके हृदय में निवास कर मैं स्वयं उनके अज्ञान को दूर करता हूँ और उन्हें आत्मज्ञान देता हूँ।

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🪷 श्लोक 12

अर्जुन उवाच —

परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान।

पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम्॥

हिंदी अनुवाद:

अर्जुन ने कहा — हे प्रभु! आप परम ब्रह्म हैं, परम धाम हैं, परम पवित्र हैं। आप सनातन पुरुष, दिव्य, आदि देव, अजन्मा और सर्वव्यापक हैं।

सरल व्याख्या:

यहाँ अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण की महिमा का गुणगान कर रहे हैं, यह मानते हुए कि वे ही परम सत्य और सनातन परमात्मा हैं।

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🪷 श्लोक 13

आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा।

असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे॥

हिंदी अनुवाद:

ऋषियों — नारद, असित, देवल, व्यास आदि — ने भी आपको ऐसा ही बताया है, और स्वयं आपने भी यही कहा है।

सरल व्याख्या:

अर्जुन कह रहे हैं कि न केवल वे, बल्कि महापुरुष और ऋषि भी भगवान को परम तत्व के रूप में स्वीकार कर चुके हैं।

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🪷 श्लोक 14

सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव।

न हि ते भगवन् व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः॥

हिंदी अनुवाद:

हे केशव! जो कुछ आप कह रहे हैं, मैं उसे सत्य मानता हूँ। हे भगवान! आपकी वास्तविकता को न तो देवता जानते हैं, न ही दैत्य।

सरल व्याख्या:

अर्जुन भगवान की बातों में पूर्ण विश्वास प्रकट करते हुए कहता है कि आपकी दिव्यता को कोई भी पूरी तरह नहीं जानता।

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🪷 श्लोक 15

स्वयं एवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम।

भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते॥

हिंदी अनुवाद:

हे पुरुषोत्तम! आप स्वयं ही अपने आप को जानते हैं, क्योंकि आप ही समस्त प्राणियों की उत्पत्ति के कारण, स्वामी, देवों के देव और इस जगत के अधिपति हैं।

सरल व्याख्या:

अर्जुन कहता है कि भगवान की महिमा को केवल वे स्वयं ही जान सकते हैं, क्योंकि वे ही सबके मूल कारण और जगत के स्वामी हैं।

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🪷 श्लोक 16

वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः।

याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि॥

हिंदी अनुवाद:

आप कृपा करके अपनी समस्त दिव्य विभूतियों को विस्तार से बताइए, जिनसे यह सम्पूर्ण ब्रह्मांड व्याप्त है।

सरल व्याख्या:

अर्जुन भगवान से अनुरोध करता है कि वे अपनी उन-उन शक्तियों का वर्णन करें, जिनसे वे समस्त संसार में व्याप्त हैं।

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🪷 श्लोक 17

कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन्।

केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया॥

हिंदी अनुवाद:

हे योगेश्वर! मैं आपको सदा कैसे जान सकूँ और किन-किन रूपों में आपका ध्यान करूँ?

सरल व्याख्या:

अर्जुन जानना चाहता है कि वह किन रूपों में भगवान का ध्यान कर सकता है — ताकि उसकी भक्ति दृढ़ हो सके।

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🪷 श्लोक 18

विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन।

भूयः कथय तृप्तिर्हि श्रृण्वतो नास्ति मेऽमृतम्॥

हिंदी अनुवाद:

हे जनार्दन! कृपया विस्तार से अपनी योगशक्ति और विभूतियों का वर्णन कीजिए, क्योंकि आपके अमृत समान वचनों को सुनकर मुझे कभी तृप्ति नहीं होती।

सरल व्याख्या:

अर्जुन कहता है कि भगवान की बातें अमृत के समान हैं, और वह उन्हें बार-बार सुनना चाहता है।

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🪷 श्लोक 19

श्रीभगवानुवाच —

हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः।

प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे॥

हिंदी अनुवाद:

श्रीभगवान बोले — हे अर्जुन! अब मैं अपनी प्रमुख दिव्य विभूतियाँ बताऊँगा, क्योंकि मेरी विभूतियों का कोई अंत नहीं है।

सरल व्याख्या:

भगवान कहते हैं कि वे अब अपनी प्रमुख शक्तियाँ बताने जा रहे हैं, लेकिन उनकी महिमा का कोई अंत नहीं है।

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🪷 श्लोक 20

अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः।

अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च॥

हिंदी अनुवाद:

हे गुडाकेश (अर्जुन)! मैं समस्त प्राणियों के हृदय में स्थित आत्मा हूँ। मैं ही सभी जीवों का आदि, मध्य और अंत हूँ।

सरल व्याख्या:

भगवान श्रीकृष्ण स्वयं को समस्त प्राणियों के अंदर निवास करने वाला बताते हैं — वही उनकी उत्पत्ति, स्थिति और संहार हैं।

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🪷 श्लोक 21

आदित्यानामहं विष्णुर्ज्योतिषां रविरंशुमान्।

मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी॥

हिंदी अनुवाद:

मैं आदित्यों में विष्णु हूँ, तेजस्वी सूर्य हूँ, मरुतों में मरीचि हूँ और नक्षत्रों में चंद्रमा हूँ।

सरल व्याख्या:

भगवान बताते हैं कि वे विभिन्न रूपों में जगत में व्याप्त हैं — जैसे सूर्य, चंद्रमा और देवताओं में विष्णु रूप में।

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🪷 श्लोक 22

वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः।

इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना॥

हिंदी अनुवाद:

मैं वेदों में सामवेद हूँ, देवताओं में इन्द्र (वासव) हूँ, इंद्रियों में मन हूँ और सभी प्राणियों में चेतना हूँ।

सरल व्याख्या:

भगवान बताते हैं कि वे श्रेष्ठतम रूपों में प्रकट होते हैं — जैसे ज्ञान, मन और चेतना के रूप में।

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🪷 श्लोक 23

रुद्राणां शंकरश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम्।

वसूनां पावकश्चास्मि मेरुः शिखरिणामहम्॥

हिंदी अनुवाद:

रुद्रों में मैं शंकर हूँ, यक्षों और राक्षसों में मैं कुबेर हूँ, वसुओं में अग्नि हूँ और पर्वतों में मैं मेरु हूँ।

सरल व्याख्या:

भगवान अपनी विभूतियों को गिनाते हुए कहते हैं कि वे प्रत्येक समूह के सबसे श्रेष्ठ तत्व हैं।

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🪷 श्लोक 24

पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम्।

सेनानीनामहं स्कन्दः सरसामस्मि सागरः॥

हिंदी अनुवाद:

हे पार्थ! पुरोहितों में मैं बृहस्पति हूँ, सेनापतियों में मैं स्कन्द (कार्तिकेय) हूँ, और जलाशयों में समुद्र हूँ।

सरल व्याख्या:

भगवान हर क्षेत्र के प्रमुख रूप को स्वयं से जोड़ते हैं — जैसे ज्ञान, शक्ति और गहराई।

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🪷 श्लोक 25

महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम्।

यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः॥

हिंदी अनुवाद:

महर्षियों में मैं भृगु हूँ, वाणी में एकाक्षर 'ॐ' हूँ, यज्ञों में जपयज्ञ हूँ और स्थिर वस्तुओं में मैं हिमालय हूँ।

सरल व्याख्या:

भगवान कहते हैं कि वे स्थायित्व, शुद्धता और शक्ति के रूप में उपस्थित हैं।

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🪷 श्लोक 26

अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः।

गंधर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः॥

हिंदी अनुवाद:

वृक्षों में मैं पीपल (अश्वत्थ) हूँ, देवऋषियों में नारद, गंधर्वों में चित्ररथ और सिद्धों में कपिल मुनि हूँ।

सरल व्याख्या:

प्राकृतिक, संगीत, और सिद्धियों से जुड़े रूपों में भी भगवान की उपस्थिति है।

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🪷 श्लोक 27

उच्चैःश्रवसमश्वानां विद्धि माममृतोद्भवम्।

ऐरावतं गजेन्द्राणां नराणां च नराधिपम्॥

हिंदी अनुवाद:

घोड़ों में मैं अमृत से उत्पन्न उच्चैःश्रवा हूँ, हाथियों में ऐरावत और मनुष्यों में राजा हूँ।

सरल व्याख्या:

भगवान श्रेष्ठता और नेतृत्व के प्रतीक रूपों में भी व्याप्त हैं।

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🪷 श्लोक 28

आयुधानामहं वज्रं धेनूनामस्मि कामधुक्।

प्रजनश्चास्मि कन्दर्पः सर्पाणामस्मि वासुकिः॥

हिंदी अनुवाद:

शस्त्रों में मैं वज्र हूँ, गायों में कामधेनु, प्रजनन में मैं कामदेव हूँ और सर्पों में वासुकि हूँ।

सरल व्याख्या:

भगवान बताते हैं कि वे शक्ति, इच्छा पूर्ति, प्रेम और ऊर्जा के प्रतीक हैं।

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🪷 श्लोक 29

अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम्।

पितॄणामर्यमा चास्मि यमः संयमतामहम्॥

हिंदी अनुवाद:

नागों में मैं अनंत हूँ, जलचरों में वरुण, पितरों में अर्यमन और नियंत्रण करने वालों में यमराज हूँ।

सरल व्याख्या:

ईश्वर मृत्युलोक से लेकर जल और अंतरिक्ष तक सभी क्षेत्रों में अपनी उपस्थिति दर्शाते हैं।

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🪷 श्लोक 30

प्रह्लादश्चास्मि दैत्यानां कालः कलयतामहम्।

मृगाणां च मृगेन्द्रोऽहं वैनतेयश्च पक्षिणाम्॥

हिंदी अनुवाद:

दैत्यगणों में मैं प्रह्लाद हूँ, समय में काल हूँ, पशुओं में सिंह और पक्षियों में गरुड़ हूँ।

सरल व्याख्या:

भगवान अधर्म में धर्म के प्रतीक प्रह्लाद और शक्ति के प्रतीक रूपों में स्वयं को प्रकट करते हैं।

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🪷 श्लोक 31

पवनः पवतामस्मि रामः शस्त्रभृतामहम्।

झषाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि जानवि॥

हिंदी अनुवाद:

शुद्ध करने वालों में मैं वायु हूँ, शस्त्रधारियों में श्रीराम हूँ, जलचरों में मगर और नदियों में गंगा हूँ।

सरल व्याख्या:

भगवान पवित्रता, वीरता और प्रवाह के हर रूप में मौजूद हैं।

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🪷 श्लोक 32

सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन।

अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम्॥

हिंदी अनुवाद:

हे अर्जुन! मैं सृष्टि का आरंभ, मध्य और अंत हूँ। विद्याओं में आत्मविद्या हूँ और वाद करने वालों में तर्कशास्त्र हूँ।

सरल व्याख्या:

ईश्वर हर ज्ञान के मूल में हैं, और सभी तर्क-वितर्क का आधार भी वे ही हैं।

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🪷 श्लोक 33

अक्षराणामकारोऽस्मि द्वंद्वः सामासिकस्य च।

अहमेवाक्षयः कालो धाताऽहं विश्वतोमुखः॥

हिंदी अनुवाद:

अक्षरों में मैं 'अ' हूँ, समासों में द्वंद्व समास हूँ। मैं अविनाशी काल हूँ और सबका रचयिता भी हूँ।

सरल व्याख्या:

भगवान भाषा, समय और सृष्टि के मूल आधार के रूप में स्वयं को बताते हैं।

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🪷 श्लोक 34

मृत्युः सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम्।

कीर्तिः श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा॥

हिंदी अनुवाद:

मैं मृत्यु हूँ जो सबको हर लेती है, और मैं ही उत्पत्ति का कारण भी हूँ। स्त्रियों में मैं कीर्ति, श्री, वाणी, स्मृति, बुद्धि, धैर्य और क्षमा हूँ।

सरल व्याख्या:

भगवान स्त्रियों में सात सुंदर गुणों के रूप में प्रकट होते हैं और सभी के जीवन के अंत और आरंभ में भी वही हैं।

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🪷 श्लोक 35

बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम्।

मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः॥

हिंदी अनुवाद:

सामवेद के मंत्रों में मैं बृहत्साम हूँ, छंदों में गायत्री हूँ, महीनों में मार्गशीर्ष और ऋतुओं में वसंत हूँ।

सरल व्याख्या:

भगवान कहते हैं कि वे सुंदरता, पवित्रता और शुभ समय के रूप में प्रकट होते हैं।

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🪷 श्लोक 36

द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्।

जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्ववतामहम्॥

हिंदी अनुवाद:

छल करने वालों में मैं जुआ हूँ, तेजस्वियों में तेज हूँ, मैं ही विजय हूँ, प्रयास हूँ और सज्जनों में सात्त्विकता हूँ।

सरल व्याख्या:

भगवान कहते हैं कि वे केवल शुभ चीजों में ही नहीं, बल्कि मायामयी क्रियाओं में भी छिपे हैं।

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🪷 श्लोक 37

वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनंजयः।

मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः॥

हिंदी अनुवाद:

वृष्णिवंश में मैं वासुदेव (श्रीकृष्ण) हूँ, पांडवों में अर्जुन हूँ, मुनियों में व्यास हूँ और कवियों में शुक्राचार्य (उशनास) हूँ।

सरल व्याख्या:

ईश्वर श्रेष्ठ मानवों के रूप में भी प्रकट होते हैं, जैसे अर्जुन, व्यास और कवियों में उशनास।

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🪷 श्लोक 38

दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम्।

मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम्॥

हिंदी अनुवाद:

दमन करने वालों में मैं दंड हूँ, विजयी होने वालों में नीति हूँ, रहस्यों में मौन और ज्ञानियों में ज्ञान हूँ।

सरल व्याख्या:

भगवान शक्ति, संयम, रहस्य और आत्मज्ञान के रूप में प्रकट होते हैं।

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🪷 श्लोक 39

यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन।

न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्॥

हिंदी अनुवाद:

हे अर्जुन! समस्त प्राणियों का जो भी बीज है, वह मैं हूँ। ऐसा कुछ भी नहीं है, जो मुझसे रहित हो — चाहे वह चर हो या अचर।

सरल व्याख्या:

ईश्वर हर सजीव और निर्जीव वस्तु के मूल में स्वयं ही हैं — वे ही सृष्टि का कारण हैं।

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🪷 श्लोक 40

नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परन्तप।

एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया॥

हिंदी अनुवाद:

हे परंतप! मेरी दिव्य विभूतियों का अंत नहीं है। अभी मैंने केवल संक्षेप में अपनी विभूतियाँ बताई हैं।

सरल व्याख्या:

भगवान कहते हैं कि उनकी महिमा अनंत है — ये तो बस झलक मात्र है।

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🪷 श्लोक 41

यद् यद् विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा।

तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम्॥

हिंदी अनुवाद:

हे अर्जुन! जो कुछ भी विभूतियुक्त, ऐश्वर्यशाली और प्रभावशाली वस्तु या प्राणी इस संसार में दिखाई देता है, उसे तुम मेरे तेज (ईश्वर के दिव्य प्रभाव) के अंश से उत्पन्न ही जानो।

सरल व्याख्या:

भगवान श्रीकृष्ण यहाँ स्पष्ट करते हैं कि संसार में जो भी चीज़ बहुत सुंदर, शक्तिशाली, प्रभावशाली, या विशेष रूप से तेजस्वी दिखाई देती है — वह सब उनके ही अंश से उत्पन्न होती है। इसका अर्थ यह है कि हर महानता, ऐश्वर्य और चमत्कार ईश्वर की विभूति का ही प्रतिफल है।

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🪷 श्लोक 42

अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन।

विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्॥

हिंदी अनुवाद:

हे अर्जुन! इन सब विस्तारों को जानने से तुम्हें क्या लाभ? मैं तो इस समस्त ब्रह्माण्ड को अपने एक ही अंश से धारण करके स्थित हूँ।

सरल व्याख्या:

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि यह जानना पर्याप्त है कि वे अपनी एक छोटी सी शक्ति (एकांश) से ही सम्पूर्ण सृष्टि को बनाए रखते हैं। उनकी महिमा इतनी व्यापक है कि समस्त संसार उसमें समाहित है, फिर भी वे उससे परे हैं।

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संदेश:

इन दोनों श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को यह समझा रहे हैं कि सभी महानता, शक्ति और सौंदर्य भगवान के ही अंश से उत्पन्न हैं, और वे स्वयं इस सम्पूर्ण जगत को अपने एक अंश से धारण किए हुए हैं।

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अगर आपने हमारे ब्लॉग के अध्याय 2 के सभी श्लोकों को अभी तक नहीं पढ़ा है। तो नीचे पूरे अध्याय के सभी लिंक दिए गए हैं। आप एक एक करके पूरे अध्याय का अध्ययन कर सकते हो। 

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 2 - श्लोक 1 से 10 तक हिंदी अर्थ व सरल व्याख्या | Sankhya Yog Bhagavad Gita

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 2 - श्लोक 11 से 20 तक | हिंदी अनुवाद और सरल व्याख्या

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 2 - श्लोक 21 से 30 | आत्मा की अमरता और शाश्वत ज्ञान

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 2 - श्लोक 31 से 40 | धर्म, कर्तव्य और निष्काम कर्म का मार्ग

भगवद्गीता अध्याय 2 ( श्लोक 41 - 50 ) : एकाग्र बुद्धि और निष्काम कर्मयोग का मार्ग

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 2 : श्लोक 51 - 60 | कर्मयोग और स्थितप्रज्ञ का स्वरूप

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 2 : श्लोक 61 - 70 | इंद्रिय - नियमन और स्थितप्रज्ञ का लक्षण


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