श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 2 : श्लोक 61-70 | इंद्रिय-नियमन और स्थितप्रज्ञ का लक्षण

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 2 : श्लोक 61-70 | 
इंद्रिय-नियमन और स्थितप्रज्ञ का लक्षण

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 2 : श्लोक 61-70 | इंद्रिय-नियमन और स्थितप्रज्ञ का लक्षण


श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 2 : श्लोक 61-70

परिचय:

"इस पोस्ट में आप जानेंगे श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 2 के श्लोक 61 से 70 तक का शुद्ध हिंदी अनुवाद और सरल व्याख्या। यह भाग इंद्रिय-नियमन, स्थितप्रज्ञ का स्वभाव और सच्ची शांति प्राप्त करने के सूत्रों को स्पष्ट करता है। यह श्रृंखला विद्यार्थियों, साधकों, और आत्मविकास की चाह रखने वालों के लिए अत्यंत उपयोगी है।"

इंद्रिय-नियमन और स्थितप्रज्ञ का लक्षण

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श्लोक 61

तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्पर:।

वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।

हिंदी अनुवाद:

जो मनुष्य सभी इन्द्रियों को वश में करके, मुझमें स्थित होकर बैठता है — उसकी बुद्धि स्थिर होती है।

सरल व्याख्या:

स्थिर बुद्धि वही होती है, जो अपनी इन्द्रियों को वश में रखकर भगवान में मन लगाता है।

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श्लोक 62

ध्यायतो विषयान्पुंस: सङ्गस्तेषूपजायते।

सङ्गात्सञ्जायते काम: कामात्क्रोधोऽभिजायते।।

हिंदी अनुवाद:

जब मनुष्य विषयों का ध्यान करता है, तो उनमें आसक्ति उत्पन्न होती है। आसक्ति से कामना, और कामना से क्रोध पैदा होता है।

सरल व्याख्या:

इन्द्रियों से विषयों में उलझने से कामनाएँ बढ़ती हैं, और पूरी न होने पर क्रोध आता है।

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श्लोक 63

क्रोधाद्भवति सम्मोह: सम्मोहात्स्मृतिविभ्रम:।

स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।

हिंदी अनुवाद:

क्रोध से मोह होता है, मोह से स्मृति भ्रमित होती है, स्मृति भ्रम से बुद्धि नष्ट होती है और बुद्धि के नाश से व्यक्ति विनाश को प्राप्त होता है।

सरल व्याख्या:

क्रोध का परिणाम अंततः व्यक्ति के आत्म-विनाश तक पहुंच सकता है।

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श्लोक 64

रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।

आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति।।

हिंदी अनुवाद:

जो व्यक्ति राग-द्वेष से रहित होकर, संयमित इन्द्रियों से विषयों में विचरण करता है — वह शांति को प्राप्त करता है।

सरल व्याख्या:

इन्द्रिय संयम और संतुलित दृष्टिकोण से ही मनुष्य सच्ची शांति पाता है।

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श्लोक 65

प्रसादे सर्वदु:खानां हानिरस्योपजायते।

प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धि: पर्यवतिष्ठते।।

हिंदी अनुवाद:

शांत मन में सारे दुख नष्ट हो जाते हैं, और ऐसा व्यक्ति शीघ्र स्थिर बुद्धि वाला हो जाता है।

सरल व्याख्या:

जब मन प्रसन्न होता है, तब निर्णय लेने की शक्ति भी स्थिर और मजबूत होती है।

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श्लोक 66

नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।

न चाभावयत: शान्तिरशान्तस्य कुत: सुखम्।।

हिंदी अनुवाद:

जिसका मन स्थिर नहीं है, उसकी बुद्धि नहीं होती; और जिसे शांति नहीं, वह सुखी कैसे हो सकता है?

सरल व्याख्या:

जिसके मन में एकाग्रता नहीं है, वह न सुखी हो सकता है और न ही शांति प्राप्त कर सकता है।

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श्लोक 67

इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते।

तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि।।

हिंदी अनुवाद:

जब मन इन्द्रियों के पीछे चलता है, तब वह व्यक्ति की बुद्धि को ऐसे बहा ले जाता है जैसे जल में नाव को तेज हवा।

सरल व्याख्या:

जो मन इन्द्रियों के अधीन हो, वह ज्ञान को बहा देता है।

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श्लोक 68

तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वश:।

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।

हिंदी अनुवाद:

इसलिए हे महाबाहु! जिसकी सभी इन्द्रियाँ विषयों से हटा ली गई हैं — उसकी बुद्धि स्थिर होती है।

सरल व्याख्या:

इन्द्रिय संयम ही स्थितप्रज्ञ की पहचान है।

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श्लोक 69

या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।

यस्यानि सर्वभूतानि स निशा पश्यतो मुने:।।

हिंदी अनुवाद:

जो रात (अज्ञान) सब प्राणियों के लिए है, उसमें संयमी जागता है; और जिस अवस्था में सब प्राणी जागते हैं, उसे मुनि रात समझता है।

सरल व्याख्या:

ज्ञानी वह देखता है जो साधारण लोग नहीं देख सकते — उसकी दृष्टि अध्यात्म में होती है।

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श्लोक 70

आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं

समुद्रमाप: प्रविशन्ति यद्वत्।

तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे

स शान्तिमाप्नोति न कामकामी।।

हिंदी अनुवाद:

जैसे नदियाँ सदा समुद्र में समाहित होती हैं पर वह स्थिर रहता है — वैसे ही इच्छाएँ जिसमें आकर शांत हो जाएँ, वही व्यक्ति शांति को प्राप्त करता है; इच्छाओं से ग्रसित व्यक्ति नहीं।

सरल व्याख्या:

जिसका मन समुद्र के समान स्थिर है, वह ही सच्ची शांति पाता है।

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 श्लोक 71

विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः।
निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति।।

हिंदी अनुवाद:

जो पुरुष सब प्रकार की इच्छाओं को त्याग देता है, किसी वस्तु में ममता और अहंकार नहीं रखता, तथा पूर्ण निःस्पृह होकर विचरण करता है — वही सच्ची शांति को प्राप्त करता है।

सरल व्याख्या:

भगवान श्रीकृष्ण समझा रहे हैं कि जब मनुष्य सांसारिक वस्तुओं की कामना, ‘मेरा’ का भाव और ‘मैं’ का अभिमान छोड़ देता है, तब ही उसे स्थायी शांति मिलती है। यह त्याग बाहरी नहीं, बल्कि अंदरूनी होता है — मन से होता है।

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श्लोक 72

एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।

स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति।।

हिंदी अनुवाद:

हे पार्थ! यह ब्राह्मी स्थिति है, जिसे प्राप्त कर मनुष्य कभी मोह में नहीं पड़ता। और जो अंत समय में भी इस स्थिति में स्थित रहता है, वह ब्रह्म (परम शांति) को प्राप्त करता है।

सरल व्याख्या:

यह अंतिम श्लोक बताता है कि ‘स्थितप्रज्ञ’ व्यक्ति की स्थिति ही ‘ब्राह्मी स्थिति’ है — यानी ब्रह्म से एकत्व। ऐसा व्यक्ति मृत्यु के समय भी विचलित नहीं होता और परम निर्वाण को प्राप्त करता है। यही अध्याय 2 की पूर्णता है।

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