श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 2 – श्लोक 31 से 40 | धर्म, कर्तव्य और निष्काम कर्म का मार्ग
श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 2 – श्लोक 31 से 40 | धर्म, कर्तव्य और निष्काम कर्म का मार्ग
Intro (परिचय):
इस तीसरे भाग में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को कर्तव्य पालन, धर्म युद्ध, और निष्काम कर्म की महिमा समझाते हैं। वे बताते हैं कि क्षत्रिय का सर्वोच्च धर्म युद्ध करना है, विशेषकर जब वह धर्म के लिए हो। साथ ही, वे निष्काम भाव से कर्म करने की प्रेरणा भी देते हैं, जिससे न तो हानि होती है और न ही अधोगति मिलती है।
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श्लोक 31
स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते॥
हिंदी अनुवाद:
अपने क्षत्रिय धर्म को देखकर भी तुम्हें विचलित नहीं होना चाहिए। धर्म युद्ध से बढ़कर क्षत्रिय के लिए कोई कल्याणकारी कार्य नहीं होता।
व्याख्या:
भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि यह युद्ध उसके लिए धर्म युद्ध है, इसलिए इससे पीछे हटना उसका धर्म त्यागना होगा।
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श्लोक 32
यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम्।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्॥
हिंदी अनुवाद:
हे पार्थ! ऐसा युद्ध जो स्वतः प्राप्त हो और स्वर्ग के द्वार खोल दे, उसे पाकर क्षत्रिय धन्य हो जाते हैं।
व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि ऐसा सुनहरा अवसर हर किसी को नहीं मिलता – यह युद्ध धर्म की रक्षा का माध्यम है।
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श्लोक 33
अथ चेतत्त्वमिमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि।
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि॥
हिंदी अनुवाद:
यदि तुम इस धर्म युद्ध से मुंह मोड़ते हो, तो अपने धर्म और कीर्ति को खोकर पाप का भागी बनोगे।
व्याख्या:
कर्म से पलायन केवल अधर्म की ओर ले जाता है – जो अर्जुन के लिए पाप होगा।
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श्लोक 34
अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्।
संभावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते॥
हिंदी अनुवाद:
लोग तुम्हारी निंदा करेंगे और यह बदनामी सदा बनी रहेगी। सम्मानित व्यक्ति के लिए बदनामी मृत्यु से भी अधिक कष्टदायक है।
व्याख्या:
यहाँ श्रीकृष्ण अर्जुन के आत्मसम्मान को जाग्रत करने का प्रयास कर रहे हैं।
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श्लोक 35
भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः।
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्॥
हिंदी अनुवाद:
महान योद्धा तुम्हें कायर समझेंगे और जिन्हें तुमने प्रेरणा दी थी, वे तुम्हें तुच्छ मानेंगे।
व्याख्या:
कर्म से पलायन केवल आत्मग्लानि ही नहीं, बल्कि समाज में भी अपमान का कारण बनता है।
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श्लोक 36
अवाच्यवादांश्च बहून्वदिष्यन्ति तवाहिताः।
निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम्॥
हिंदी अनुवाद:
तुम्हारे शत्रु तुम्हारे सामर्थ्य की निंदा करते हुए अशोभनीय बातें कहेंगे। इससे बड़ा कष्ट और क्या होगा?
व्याख्या:
कृष्ण अर्जुन को याद दिलाते हैं कि अपमान और निंदा का दर्द युद्ध से कहीं अधिक है।
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श्लोक 37
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः॥
हिंदी अनुवाद:
यदि मारे गए तो स्वर्ग मिलेगा और यदि जीते तो पृथ्वी का राज्य। इसलिए हे कौन्तेय! युद्ध के लिए तैयार हो जा।
व्याख्या:
यह श्लोक निष्काम कर्मयोग का आरंभिक बीज है – कर्म करो, फल की चिंता मत करो।
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श्लोक 38
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि॥
हिंदी अनुवाद:
सुख-दुख, लाभ-हानि, जय-पराजय को समान मानकर युद्ध करो, ऐसा करने से पाप नहीं लगेगा।
व्याख्या:
यहाँ से कर्मयोग की शिक्षा स्पष्ट हो जाती है – भावनाओं और परिणामों से परे रहकर कार्य करो।
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श्लोक 39
एषा तेऽभिहिता साङ्ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु।
बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि॥
हिंदी अनुवाद:
अब तक मैंने तुझे सांख्य के अनुसार ज्ञान बताया, अब योग के अनुसार बुद्धि की बात सुन। इस बुद्धि से युक्त होकर तू कर्मबंधन से मुक्त हो जाएगा।
व्याख्या:
भगवान अब अर्जुन को कर्मयोग के दर्शन की ओर ले जाते हैं – केवल ज्ञान नहीं, उसका प्रयोग ही मुक्ति दिलाता है।
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श्लोक 40
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥
हिंदी अनुवाद:
इस योग (कर्मयोग) में कोई प्रयास व्यर्थ नहीं जाता और न ही कोई हानि होती है। इसका थोड़ा सा अभ्यास भी महान भय से रक्षा करता है।
व्याख्या:
कर्मयोग कभी व्यर्थ नहीं होता। इसका अभ्यास धीरे-धीरे आत्मा को भय, भ्रम और बंधन से मुक्त करता है।
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