भगवद्गीता अध्याय 2 (श्लोक 41–50): एकाग्र बुद्धि और निष्काम कर्मयोग का मार्ग

 भगवद्गीता अध्याय 2 (श्लोक 41–50): एकाग्र बुद्धि और निष्काम कर्मयोग का मार्ग

भगवद्गीता अध्याय 2 (श्लोक 41–50): एकाग्र बुद्धि और निष्काम कर्मयोग का मार्ग


श्रीमद्भगवद्गीता – अध्याय 2 (श्लोक 41–50)

परिचय:

इस भाग में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को बुद्धियोग (योग बुद्धि) का रहस्य समझाते हैं।

वे सिखाते हैं कि कैसे कर्म करते हुए भी मनुष्य फल की चिंता से मुक्त रह सकता है।

यहाँ 'निष्काम कर्मयोग' और 'समत्व भाव' का गूढ़ ज्ञान मिलता है।

जीवन में स्थिरता, सफलता और शांति के लिए यह शिक्षा अत्यंत मूल्यवान है।

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श्लोक 41

व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।

बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्॥

हिंदी अनुवाद:

हे कुरुनंदन! इस मार्ग में एकनिष्ठ (स्थिर) बुद्धि ही सफल होती है, जबकि अस्थिर बुद्धि वाले अनेक प्रकार की बातों में उलझ जाते हैं।

व्याख्या:

धार्मिक या आत्मिक मार्ग में सफलता के लिए एकाग्र और अडिग चित्त आवश्यक है। जो लोग मन से चंचल होते हैं, वे लक्ष्य से भटक जाते हैं।

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श्लोक 42–43 (संपुटित)

यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः।

वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः॥

कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्।

क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति॥

हिंदी अनुवाद:

हे पार्थ! अविवेकी लोग वेदों की सुंदर-सुंदर बातों में लिप्त रहते हैं। वे कहते हैं कि स्वर्ग ही सर्वोत्तम है, और भोग-विलास ही जीवन का उद्देश्य है।

व्याख्या:

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि केवल स्वर्ग की कामना और भोग के पीछे भागना आत्मा की उन्नति नहीं है। असली ज्ञान उससे परे है।

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श्लोक 44

भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्।

व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते॥

हिंदी अनुवाद:

भोग और ऐश्वर्य में आसक्त लोगों की बुद्धि चंचल हो जाती है, जिससे वे स्थिर समाधि नहीं प्राप्त कर सकते।

व्याख्या:

भौतिक सुखों की अधिक इच्छा आत्मिक उन्नति में बाधा बनती है। संतुलित जीवन और संयम आवश्यक है।

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श्लोक 45

त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।

निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्॥

हिंदी अनुवाद:

वेद मुख्यतः तीन गुणों (सत्, रज, तम) से संबंधित हैं। हे अर्जुन! तू इनसे ऊपर उठ, द्वंद्वों से रहित, सदा सत्त्व में स्थित और आत्मनिष्ठ हो।

व्याख्या:

जीवन के द्वंद्व (सुख-दुख, लाभ-हानि) से ऊपर उठना और आत्मज्ञान में स्थिर होना ही सच्चा योग है।

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श्लोक 46

यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके।

तावान्सर्वेषु वेषु ब्राह्मणस्य विजानतः॥

हिंदी अनुवाद:

जैसे एक छोटे कुएँ की उपयोगिता समाप्त हो जाती है जब चारों ओर जल से भरी नदियाँ हों, वैसे ही जो आत्मज्ञान में स्थित है, उसके लिए सभी वेद निष्फल हो जाते हैं।

व्याख्या:

आत्मज्ञानी के लिए बाह्य विधि-विधान गौण हो जाते हैं क्योंकि उसे सत्य का बोध हो चुका होता है।

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श्लोक 47

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।

मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥

हिंदी अनुवाद:

तेरा अधिकार केवल कर्म करने में है, फल में नहीं। इसलिए कर्म का फल तेरा उद्देश्य न हो और तू कर्म न करने में भी आसक्त न हो।

व्याख्या:

यह गीता का सबसे प्रसिद्ध श्लोक है जो 'निष्काम कर्म' का मूल सिद्धांत प्रस्तुत करता है। फल की चिंता छोड़कर कर्म करना ही श्रेष्ठ है।

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श्लोक 48

योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।

सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥

हिंदी अनुवाद:

हे धनंजय! योग में स्थित होकर कर्म कर, आसक्ति को त्याग कर और सफलता–असफलता में समभाव रख। यही समत्व योग कहलाता है।

व्याख्या:

योग का अर्थ केवल आसन नहीं, बल्कि जीवन में समता, संतुलन और निष्काम भावना से कर्म करना है।

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श्लोक 49

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय।

बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः॥

हिंदी अनुवाद:

हे धनंजय! कर्म की अपेक्षा बुद्धियोग श्रेष्ठ है, इसलिए बुद्धि में शरण ले। जो केवल फल की इच्छा करते हैं, वे कृपण हैं।

व्याख्या:

भगवान श्रीकृष्ण फल की इच्छा को एक प्रकार की मानसिक दरिद्रता कहते हैं। श्रेष्ठ वह है जो विवेकपूर्वक निष्काम कर्म करे।

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श्लोक 50

बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।

तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्॥

हिंदी अनुवाद:

बुद्धियुक्त व्यक्ति इस जीवन में ही शुभ और अशुभ दोनों को त्याग देता है। इसलिए योग में लग जा, क्योंकि योग ही कर्म में कुशलता है।

व्याख्या:

योगी व्यक्ति को कोई कर्म बंधन नहीं देता। विवेकयुक्त कर्म ही सच्ची कुशलता है।

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