श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 2: श्लोक 51-60 | कर्मयोग और स्थितप्रज्ञ का स्वरूप

 श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 2: श्लोक 51-60 | कर्मयोग और स्थितप्रज्ञ का स्वरूप

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 2: श्लोक 51-60 | कर्मयोग और स्थितप्रज्ञ का स्वरूप


परिचय:

इस भाग में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को निष्काम कर्म की गहराई समझाते हैं।

वे बताते हैं कि बुद्धियोग से युक्त व्यक्ति कैसे जन्म-मरण से मुक्त होकर शांति को प्राप्त करता है।

अर्जुन के प्रश्न पर श्रीकृष्ण ‘स्थितप्रज्ञ’ योगी के लक्षण बताते हैं – जो न सुख में हर्षित होता है, न दुःख में विचलित।

यह श्रृंखला उन श्रोताओं के लिए है जो स्थिर बुद्धि, वैराग्य और आत्मा के मार्ग पर चलना चाहते हैं।

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श्लोक 51

कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः।

जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम्॥

हिंदी अर्थ:

जो ज्ञानीजन बुद्धियोग से युक्त होकर कर्मों के फल का त्याग करते हैं, वे जन्म के बंधन से मुक्त होकर शांति को प्राप्त करते हैं।

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श्लोक 52

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।

तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च॥

हिंदी अर्थ:

जब तेरी बुद्धि मोह रूप जाल को पार कर जाएगी, तब तू सुनने योग्य और सुना हुआ सभी ज्ञान के प्रति वैराग्य को प्राप्त करेगा।

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श्लोक 53

श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला।

समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि॥

हिंदी अर्थ:

जब तेरी बुद्धि वेदों के विरोधाभासी कथनों से विचलित नहीं होगी और समाधि में स्थिर हो जाएगी, तभी तू योग को प्राप्त करेगा।

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श्लोक 54

अर्जुन उवाच –

स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव।

स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्॥

हिंदी अर्थ:

अर्जुन बोले – हे केशव! स्थिरबुद्धि व्यक्ति की क्या पहचान है? वह कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है?

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श्लोक 55

श्रीभगवानुवाच –

प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्।

आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते॥

हिंदी अर्थ:

भगवान बोले – हे पार्थ! जब व्यक्ति मन के सभी कामनाओं का त्याग करता है और आत्मा में संतुष्ट रहता है, तब वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है।

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श्लोक 56

दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते॥

हिंदी अर्थ:

जो व्यक्ति दुःखों में विचलित नहीं होता, सुखों की इच्छा नहीं करता, और राग, भय, क्रोध से मुक्त होता है – वह स्थिरबुद्धि मुनि कहलाता है।

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श्लोक 57

यःसर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।

नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥

हिंदी अर्थ:

जो मनुष्य किसी भी वस्तु में आसक्त नहीं होता, शुभ या अशुभ मिलने पर न हर्ष करता है न द्वेष, उसकी बुद्धि स्थिर होती है।

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श्लोक 58

यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः।

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥

हिंदी अर्थ:

जब मनुष्य अपनी इंद्रियों को कछुए की तरह विषयों से खींच लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर मानी जाती है।

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श्लोक 59

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।

रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते॥

हिंदी अर्थ:

विषय तो शरीर से दूर हो सकते हैं, पर उनका रस (आकर्षण) तब तक बना रहता है जब तक परमात्मा का साक्षात्कार नहीं होता।

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श्लोक 60

यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः।

इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः॥

हिंदी अर्थ:

हे अर्जुन! यत्नशील ज्ञानी व्यक्ति का मन भी चंचल इंद्रियाँ बलपूर्वक खींच लेती हैं।

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भगवद्गीता अध्याय1 ( श्लोक 1 - 10 ) अर्जुन विषाद योग | हिंदी अनुवाद व सरल अर्थ

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय1 श्लोक 11 से 25 तक ( हिंदी अर्थ व सरल व्याख्या )

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय1 : श्लोक 26 से 40 तक ( हिंदी अनुवाद व सरल व्याख्या )

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय1 : श्लोक 41 से 47 तक ( हिंदी अनुवाद व व्याख्या )

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