श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 3: कर्म योग | श्लोक 1 से 10 का सरल अनुवाद व व्याख्या
श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 3: कर्म योग | श्लोक 1 से 10 का सरल अनुवाद व व्याख्या
श्रीमद्भगवद्गीता – अध्याय 3: कर्म योग
श्लोक 1 से 10 | हिंदी अनुवाद व सरल व्याख्या
परिचय:
श्रीमद्भगवद्गीता के तीसरे अध्याय में श्रीकृष्ण अर्जुन को 'कर्म योग' का महत्व समझाते हैं। वे बताते हैं कि केवल ज्ञान या त्याग से नहीं, बल्कि निष्काम कर्म (फल की इच्छा से रहित कर्म) ही आत्मोन्नति का मार्ग है। आइए पढ़ते हैं श्लोक 1 से 10 तक:
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श्लोक 1:
अर्जुन उवाच —
ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन।
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव॥
हिंदी अनुवाद:
अर्जुन बोले — हे जनार्दन! यदि आपके लिए बुद्धि (ज्ञान योग) कर्म से श्रेष्ठ है, तो फिर मुझे इस भयानक कर्म (युद्ध) में क्यों लगाते हैं?
सरल व्याख्या:
अर्जुन भ्रमित है। पहले अध्याय में कृष्ण ने ज्ञान की महिमा बताई थी, अब अर्जुन पूछ रहा है कि जब ज्ञान श्रेष्ठ है तो उसे युद्ध करने को क्यों कहा जा रहा है?
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श्लोक 2:
व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्॥
हिंदी अनुवाद:
आपके वचनों से मेरी बुद्धि भ्रमित हो रही है। कृपया मुझे एक निश्चित मार्ग बताएं जिससे मैं श्रेष्ठ फल प्राप्त कर सकूं।
सरल व्याख्या:
अर्जुन चाहता है कि कृष्ण स्पष्ट रूप से एक ही मार्ग बताएं — ज्ञान या कर्म — जिससे वह जीवन में श्रेय (उत्तम लक्ष्य) पा सके।
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श्लोक 3:
श्रीभगवानुवाच —
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।
ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्॥
हिंदी अनुवाद:
भगवान श्रीकृष्ण बोले — इस संसार में दो प्रकार की निष्ठा कही गई है: ज्ञानयोग (सांख्य योगियों के लिए) और कर्मयोग (कर्मशील योगियों के लिए)।
सरल व्याख्या:
कृष्ण बताते हैं कि दोनों मार्ग उचित हैं, पर अलग-अलग प्रवृत्तियों वाले लोगों के लिए हैं। ज्ञान योग त्यागी लोगों के लिए है और कर्म योग गृहस्थों व कर्मशीलों के लिए।
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श्लोक 4:
न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।
न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति॥
हिंदी अनुवाद:
कर्म का आरंभ न करने से मनुष्य निष्क्रियता नहीं पा सकता और केवल संन्यास लेने से सिद्धि प्राप्त नहीं होती।
सरल व्याख्या:
कर्म से भागने मात्र से मुक्ति नहीं मिलती। संन्यास केवल बाहरी रूप नहीं, भीतर से भी आवश्यक है।
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श्लोक 5:
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवश: कर्म सर्व: प्रकृतिजैर्गुणै:॥
हिंदी अनुवाद:
कोई भी व्यक्ति क्षण भर भी बिना कर्म किए नहीं रह सकता। प्रकृति के गुणों के कारण वह कर्म करने को बाध्य है।
सरल व्याख्या:
प्रकृति की प्रवृत्तियाँ हमें लगातार कर्म की ओर प्रेरित करती हैं। इसलिए निष्क्रिय रहना संभव नहीं।
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श्लोक 6:
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचार: स उच्यते॥
हिंदी अनुवाद:
जो व्यक्ति बाहरी इंद्रियों को रोककर केवल मन में विषयों का चिंतन करता है, वह मिथ्याचारी कहलाता है।
सरल व्याख्या:
सिर्फ दिखावे का संन्यास, जब मन विषयों में लिप्त हो — वो कपट है। सच्चा योग वह है जो मन से भी विषयों को त्यागे।
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श्लोक 7:
यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।
कर्मेन्द्रियै: कर्मयोगमसक्त: स विशिष्यते॥
हिंदी अनुवाद:
हे अर्जुन! जो व्यक्ति मन से इंद्रियों को नियंत्रित कर के, आसक्ति रहित होकर कर्म करता है, वह श्रेष्ठ है।
सरल व्याख्या:
असली योगी वही है जो संयम के साथ कर्म करता है, लेकिन फल की आसक्ति नहीं रखता।
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श्लोक 8:
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मण:।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मण:॥
हिंदी अनुवाद:
तुम अपने नियत कर्म करो, क्योंकि कर्म अकर्म से श्रेष्ठ है। बिना कर्म किए तो शरीर की यात्रा भी नहीं चलेगी।
सरल व्याख्या:
जीवन चलाने के लिए भी कर्म आवश्यक है। इसलिए नियत कर्म (कर्तव्य) करना ही श्रेयस्कर है।
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श्लोक 9:
यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धन:।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंग: समाचर॥
हिंदी अनुवाद:
यज्ञ के लिए किए गए कर्म के अलावा अन्य कर्म बंधन का कारण बनते हैं। इसलिए हे कौन्तेय! आसक्ति रहित होकर यज्ञ के लिए कर्म करो।
सरल व्याख्या:
कर्म जब ईश्वर के अर्पण भाव से किया जाए तो वह बंधन से मुक्त करता है। सेवा-भाव से किया गया कर्म ही यज्ञ है।
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श्लोक 10:
सहयज्ञा: प्रजा: सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापति:।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्॥
हिंदी अनुवाद:
प्रजापति (ब्रह्मा) ने सृष्टि के आरंभ में यज्ञ सहित प्रजा की रचना कर कहा — तुम इस यज्ञ से समृद्ध होओ, यह तुम्हारी इच्छाओं की पूर्ति करेगा।
सरल व्याख्या:
सृष्टि की रचना यज्ञ पर आधारित है। जब हम सेवा, त्याग, और सहयोग से कर्म करते हैं तो वही सृष्टि की गति को पोषित करता है।
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समापन:
इस प्रकार श्रीकृष्ण ने कर्म योग की शुरुआत करते हुए स्पष्ट किया कि केवल संन्यास नहीं, बल्कि निष्काम भाव से कर्म करना ही सच्चा योग है। अगले भाग में हम श्लोक 11 से आगे की चर्चा करेंगे।
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