श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 18 – मोक्ष-संन्यास योग (हिंदी में अनुवाद और व्याख्या सहित)

 श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 18 – मोक्ष-संन्यास योग (हिंदी में अनुवाद और व्याख्या सहित)

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 18 – मोक्ष-संन्यास योग (हिंदी में अनुवाद और व्याख्या सहित)


📖 🔰 आरंभ में 4 पंक्तियों का परिचय (Intro Lines):

श्रीमद्भगवद्गीता का अठारहवाँ अध्याय "मोक्ष-संन्यास योग" कहलाता है।
इसमें भगवान श्रीकृष्ण कर्म, त्याग, संन्यास और भक्ति के अंतिम रहस्य प्रकट करते हैं।
अर्जुन का मोह समाप्त होता है और वह कर्तव्य पथ पर अग्रसर होता है।
आइए पढ़ते हैं सम्पूर्ण श्लोकों का हिंदी अनुवाद एवं सरल व्याख्या।

📖 श्रीमद्भगवद्गीता – अध्याय 18

"मोक्ष-संन्यास योग"

🕉️ श्लोक 1 से 78 | अनुवाद और व्याख्या सहित

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🧘‍♂️ श्लोक 1

अर्जुन उवाच

संन्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम् |
त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन ||

📚 हिंदी अनुवाद:

हे महाबाहु! हे केशिनिषूदन! मैं संन्यास और त्याग के तत्त्व को भलीभाँति जानना चाहता हूँ।

🧠 सरल व्याख्या:

अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण से पूछते हैं कि "संन्यास" और "त्याग" – इन दोनों शब्दों का सच्चा अर्थ क्या है? कृपया इनका भेद स्पष्ट कीजिए।

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🧘‍♂️ श्लोक 2

श्रीभगवानुवाच

काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः |
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः ||

📚 हिंदी अनुवाद:

भगवान बोले – बुद्धिमान जन कामना से किए गए कर्मों के त्याग को "संन्यास" कहते हैं, और समस्त कर्मों के फलों के त्याग को "त्याग" कहते हैं।

🧠 सरल व्याख्या:

यहाँ भगवान स्पष्ट करते हैं कि संन्यास का अर्थ है – इच्छाओं से प्रेरित कर्मों को छोड़ना। जबकि त्याग का अर्थ है – सभी कर्मों के फल की आकांक्षा को छोड़ देना।
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🧘‍♂️ श्लोक 3

त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः |
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यमिति चापरे ||

📚 हिंदी अनुवाद:

कुछ ज्ञानीजन कहते हैं कि कर्म दोषरूप है, इसलिए इसका त्याग करना चाहिए; जबकि अन्य लोग कहते हैं कि यज्ञ, दान और तप जैसे कर्मों का त्याग नहीं करना चाहिए।

🧠 सरल व्याख्या:

कुछ लोग हर कर्म को दोषपूर्ण मानकर उसे त्यागने की बात करते हैं। जबकि अन्य कहते हैं कि शुभ और पवित्र कर्म (जैसे यज्ञ, दान, तप) का त्याग नहीं करना चाहिए।

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🧘‍♂️ श्लोक 4

निश्चयं श्रृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम |
त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः संप्रकीर्तितः ||

📚 हिंदी अनुवाद:

हे भरतश्रेष्ठ अर्जुन! त्याग के विषय में मेरा निश्चित मत सुनो। हे पुरुषों में श्रेष्ठ! त्याग तीन प्रकार का कहा गया है।

🧠 सरल व्याख्या:

भगवान अब अर्जुन को बताते हैं कि त्याग भी एक जैसा नहीं होता — ये तीन प्रकार का होता है। अब वे उसे विस्तार से समझाएँगे।

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🧘‍♂️ श्लोक 5

यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत् |
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम् ||

📚 हिंदी अनुवाद:

यज्ञ, दान और तप – ये कर्म कभी त्यागने योग्य नहीं हैं। ये करना ही चाहिए, क्योंकि ये ज्ञानी जनों को पवित्र करते हैं।

🧠 सरल व्याख्या:

ईश्वरप्राप्ति और आत्मशुद्धि के लिए यज्ञ, दान और तप आवश्यक हैं। इन्हें त्यागना नहीं बल्कि करना चाहिए।

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🧘‍♂️ श्लोक 6

एतान्यपि तु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च |
कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम् ||

📚 हिंदी अनुवाद:

हे पार्थ! इन कर्मों (यज्ञ, दान, तप) को भी आसक्ति और फल की भावना को त्यागकर करना चाहिए – यह मेरा निश्चित और श्रेष्ठ मत है।

🧠 सरल व्याख्या:

कर्म करें लेकिन बिना फल की इच्छा और बिना मोह के। यही सही तरीका है। अच्छे कार्यों का भी त्याग नहीं, बस आसक्ति का त्याग करें।

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🧘‍♂️ श्लोक 7

नियतस्य तु संन्यासः कर्मणो नोपपद्यते |
मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः ||

📚 हिंदी अनुवाद:

नियत कर्मों का त्याग उचित नहीं है। जो मोहवश उनका परित्याग करता है, वह तामसी त्याग कहलाता है।

🧠 सरल व्याख्या:

जो व्यक्ति अज्ञान या भ्रम के कारण अपने कर्तव्यों से भागता है, उसका त्याग तामसी (अंधकारपूर्ण) कहलाता है और वह उचित नहीं है।

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🧘‍♂️ श्लोक 8

दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्त्यजेत् |
स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत् ||

📚 हिंदी अनुवाद:

जो व्यक्ति शरीर की पीड़ा या कष्ट के भय से कर्म को छोड़ता है, वह रजोगुणयुक्त त्याग करता है और उसे त्याग का फल नहीं मिलता।

🧠 सरल व्याख्या:

अगर कोई काम कठिन लगता है और इसलिए हम उसे छोड़ते हैं – तो वह सच्चा त्याग नहीं कहलाता। वह स्वार्थ या डर से किया गया त्याग है।

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🧘‍♂️ श्लोक 9

कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन |
सङ्गं त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः ||

📚 हिंदी अनुवाद:

हे अर्जुन! जो व्यक्ति अपने नियत कर्मों को यह सोचकर करता है कि यह मेरा कर्तव्य है, और जिसमें आसक्ति और फल की इच्छा नहीं होती – वह सात्त्विक त्याग कहलाता है।

🧠 सरल व्याख्या:

सच्चा त्याग यह है कि कर्म करो लेकिन न किसी मोह से, न फल की लालसा से। बस, कर्तव्य समझकर कर्म करो – यही सात्त्विक त्याग है।

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🧘‍♂️ श्लोक 10

न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते |
त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः ||

📚 हिंदी अनुवाद:

जो त्यागी व्यक्ति न अशुभ कर्मों से द्वेष करता है और न शुभ कर्मों में आसक्ति करता है, वह मेधावी है और संदेह रहित होकर सत्त्वगुण से युक्त होता है।

🧠 सरल व्याख्या:

सच्चा त्यागी व्यक्ति हर परिस्थिति में संतुलित रहता है। उसे न बुरे कर्मों से घृणा होती है और न अच्छे कर्मों से मोह। ऐसा व्यक्ति ज्ञानी होता है।

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🧘‍♂️ श्लोक 11

न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः |
यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते ||

📚 हिंदी अनुवाद:

शरीरधारी प्राणी के लिए समस्त कर्मों का पूरी तरह त्याग करना संभव नहीं है। लेकिन जो व्यक्ति कर्मों के फलों का त्याग करता है, वही सच्चा त्यागी कहलाता है।

🧠 सरल व्याख्या:

जब तक शरीर है, तब तक कर्म करना ही पड़ेगा। लेकिन जो व्यक्ति कर्म का फल नहीं चाहता, वही वास्तविक त्यागी है।

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🧘‍♂️ श्लोक 12

अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम् |
भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु संन्यासिनां क्वचित् ||

📚 हिंदी अनुवाद:

जो लोग त्यागी नहीं हैं, उन्हें तीन प्रकार के फल (सुखद, दुखद और मिश्रित) मिलते हैं। लेकिन जो संन्यासी हैं, उन्हें ये फल नहीं बाँधते।

🧠 सरल व्याख्या:

फल की कामना वाले को अच्छे-बुरे फल मिलते हैं। परंतु निर्लिप्त संन्यासी को कोई फल बाँध नहीं सकता।

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🧘‍♂️ श्लोक 13

पञ्चैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे |
सांख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम् ||

📚 हिंदी अनुवाद:

हे महाबाहु अर्जुन! सांख्य शास्त्र के अनुसार, सभी कर्मों की सिद्धि के लिए पाँच कारण बताए गए हैं – उन्हें मुझसे सुनो।

🧠 सरल व्याख्या:

भगवान अब कर्मों की सफलता के पीछे के 5 मुख्य कारणों को स्पष्ट करेंगे। ये हमें सही दृष्टिकोण देंगे।

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🧘‍♂️ श्लोक 14

अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम् |
विविधाश्च पृथक् चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम् ||

📚 हिंदी अनुवाद:

ये पाँच कारण हैं – (1) अधिष्ठान (शरीर), (2) कर्ता (कर्ता का संकल्प), (3) इन्द्रियाँ, (4) प्रयास, और (5) दैव (ईश्वर की कृपा या भाग्य)।

🧠 सरल व्याख्या:

कोई भी कर्म केवल हमारे कारण नहीं होता। ईश्वर, शरीर, इन्द्रियाँ, प्रयास और भाग्य – ये सभी मिलकर फल देते हैं।

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🧘‍♂️ श्लोक 15

शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः |
न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः ||

📚 हिंदी अनुवाद:

मनुष्य जो भी कार्य शरीर, वाणी और मन से करता है – चाहे वह उचित हो या अनुचित – उसके पीछे यही पाँच कारण होते हैं।

🧠 सरल व्याख्या:

हमारे हर अच्छे-बुरे कार्य के पीछे यही पाँच कारक होते हैं। इसलिए केवल खुद को ही दोष देना उचित नहीं।

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🧘‍♂️ श्लोक 16

तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः |
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः ||

📚 हिंदी अनुवाद:

जो मूढ़ व्यक्ति इन कारणों को नहीं समझकर केवल स्वयं को ही कर्ता मानता है, वह वास्तविकता को नहीं समझता।

🧠 सरल व्याख्या:

जो अपने कर्मों का पूरा श्रेय या दोष स्वयं को देता है, वह अज्ञान में है। ईश्वर की व्यवस्था को नहीं समझता।

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🧘‍♂️ श्लोक 17

यस्यानहङ्कृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते |
हत्वाऽपि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते ||

📚 हिंदी अनुवाद:

जिसके भीतर अहंकार नहीं है और जिसकी बुद्धि शुद्ध है, वह भले ही सब कुछ करता दिखे, पर वह वास्तव में न करता है, न बंधता है।

🧠 सरल व्याख्या:

सच्चा ज्ञानी कर्म करता हुआ भी निर्लिप्त रहता है। वह न हिंसा करता है, न पाप में बंधता है।

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🧘‍♂️ श्लोक 18

ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना |
करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसंग्रहः ||

📚 हिंदी अनुवाद:

ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता – ये तीन ज्ञान के अंग हैं। और करण, कर्म और कर्ता – ये तीन कर्म के अंग हैं।

🧠 सरल व्याख्या:

भगवान ज्ञान और कर्म के तत्वों को तीन-तीन भागों में विभाजित करते हैं। अब इनका गहराई से विश्लेषण होगा।

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🧘‍♂️ श्लोक 19

ज्ञानं कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदतः |
प्रोच्यते गुणसङ्ख्याने यथावच्छृणु तान्यपि ||

📚 हिंदी अनुवाद:

अब मैं तुम्हें बताता हूँ कि ज्ञान, कर्म और कर्ता – ये तीनों भी गुणों के अनुसार तीन प्रकार के होते हैं। उन्हें विस्तार से सुनो।

🧠 सरल व्याख्या:

अब श्रीकृष्ण समझाएँगे कि सात्त्विक, राजस और तामस – इन तीन गुणों के अनुसार ज्ञान, कर्म और कर्ता कैसे होते हैं।

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🧘‍♂️ श्लोक 20

सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते |
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम् ||

📚 हिंदी अनुवाद:

जो व्यक्ति सभी प्राणियों में एक ही अविनाशी आत्मा को देखता है – वही ज्ञान सात्त्विक है।

🧠 सरल व्याख्या:

सच्चा ज्ञान वही है, जो हमें सब में एकता और ईश्वरतत्त्व को देखने की दृष्टि दे। यही सात्त्विक ज्ञान है।

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🧘‍♂️ श्लोक 21

पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृथग्विधान् |
वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम् ||

📚 हिंदी अनुवाद:

जो ज्ञान सभी प्राणियों में भिन्न-भिन्न गुण और भाव देखकर उन्हें पृथक-पृथक मानता है, उसे राजस ज्ञान समझो।

🧠 सरल व्याख्या:

जो व्यक्ति हर प्राणी में अंतर देखता है — जाति, रूप, भाषा आदि के आधार पर भेद करता है — वह राजस ज्ञान है।

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🧘‍♂️ श्लोक 22

यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम् |
अतत्त्वार्थवदल्पं च तत्तामसमुदाहृतम् ||

📚 हिंदी अनुवाद:

जो बिना कारण एक ही कार्य को सब कुछ मानकर चिपका रहता है और जो असत्य एवं सीमित होता है, वह तामस ज्ञान कहलाता है।

🧠 सरल व्याख्या:

जो ज्ञान अधूरी समझ और अंधभक्ति पर आधारित हो, जिसमें विवेक न हो — उसे तामस ज्ञान कहा गया है।

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🧘‍♂️ श्लोक 23

नियतं सङ्गरहितमरागद्वेषतः कृतम् |
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते ||

📚 हिंदी अनुवाद:

जो कर्म नियमपूर्वक, बिना आसक्ति, राग और द्वेष से रहित तथा फल की इच्छा के बिना किया जाता है – वह सात्त्विक कर्म है।

🧠 सरल व्याख्या:

सच्चा कर्म वह है जो कर्तव्य भावना से किया जाए — बिना लालच और नफरत के, और बिना फल की कामना के।

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🧘‍♂️ श्लोक 24

यत्तु कामेप्सुना कर्म साहंकारेण वा पुनः |
क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम् ||

📚 हिंदी अनुवाद:

जो कर्म इच्छाओं की पूर्ति के लिए या अहंकार से किया जाता है, और जो अत्यधिक श्रमसाध्य होता है – वह राजस कर्म है।

🧠 सरल व्याख्या:

अगर कोई काम केवल नाम, शोहरत, या निजी लाभ के लिए किया जाए — तो वह राजस कर्म है।
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🧘‍♂️ श्लोक 25

अनुबन्धं क्षयं हिंसामनपेक्ष्य च पौरुषम् |
मोहारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते ||

📚 हिंदी अनुवाद:

जो कर्म बिना सोच-विचार के, परिणामों की परवाह किए बिना, हिंसा और हानि पहुँचाकर किया जाता है — वह तामस कर्म है।

🧠 सरल व्याख्या:

जो कार्य अज्ञान, क्रोध या जिद से किया जाए, जिससे दूसरों को नुकसान पहुँचे — वह तामसिक कर्म कहलाता है।

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🧘‍♂️ श्लोक 26

मुक्तसङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः |
सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते ||

📚 हिंदी अनुवाद:

जो कर्ता आसक्ति से मुक्त, अहंकाररहित, धैर्यवान, उत्साही और सफलता-असफलता में समभाव रखता है – वह सात्त्विक कर्ता है।

🧠 सरल व्याख्या:

सच्चा कर्ता वह है जो बिना घमंड के, मेहनत से, शांत चित्त से कर्म करता है – न फल से डरे, न घमंड करे।

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🧘‍♂️ श्लोक 27

रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकः अशुचिः |
हर्षशोकान्वितः कर्ता राजसः परिकीर्तितः ||

📚 हिंदी अनुवाद:

जो कर्ता लालची, हिंसक, अपवित्र, और कर्मफल का लोभी होता है तथा हर्ष और शोक से प्रभावित होता है – वह राजस कर्ता कहलाता है।

🧠 सरल व्याख्या:

जो व्यक्ति भावनाओं के उतार-चढ़ाव, लालच और आक्रोश में कर्म करता है — वह राजसिक कर्ता होता है।

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🧘‍♂️ श्लोक 28

अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठो नैष्कृतिकोऽलसः |
विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते ||

📚 हिंदी अनुवाद:

जो कर्ता असंयमी, जिद्दी, छलपूर्ण, आलसी, निराशावादी, और काम में देर करने वाला हो — वह तामस कर्ता कहलाता है।

🧠 सरल व्याख्या:

अगर कोई व्यक्ति आलसी, नकारात्मक, धोखेबाज़ या हर काम को टालने वाला हो — तो वह तामसिक कर्ता है।

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🧘‍♂️ श्लोक 29

बुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं श्रृणु |
प्रोच्यमानमशेषेण पृथक्त्वेन धनंजय ||

📚 हिंदी अनुवाद:

हे धनंजय! अब बुद्धि और धृति के गुणों के अनुसार तीन प्रकार के भेदों को विस्तार से सुनो।

🧠 सरल व्याख्या:

भगवान अब बताने जा रहे हैं कि बुद्धि (विवेक) और धृति (धैर्य) भी तीन प्रकार के होते हैं — सात्त्विक, राजस और तामस।

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🧘‍♂️ श्लोक 30

प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये |
बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी ||

📚 हिंदी अनुवाद:

जो बुद्धि यह समझती है कि क्या करना चाहिए, क्या नहीं; किससे भय है, किससे नहीं; क्या बंधन है और क्या मोक्ष – वही सात्त्विक बुद्धि है।

🧠 सरल व्याख्या:

जो बुद्धि सही-गलत, धर्म-अधर्म, बंधन-मोक्ष में स्पष्ट निर्णय कर सके — वह ही सात्त्विक विवेक कहलाती है।

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🧘‍♂️ श्लोक 31

यया धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव च |
अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी ||

📚 हिंदी अनुवाद:

हे पार्थ! जो बुद्धि धर्म और अधर्म, कर्तव्य और अकर्तव्य में ठीक से भेद नहीं कर पाती – वह राजसी बुद्धि कहलाती है।

🧠 सरल व्याख्या:

राजस बुद्धि भ्रमित होती है। उसे सही–गलत, धर्म–अधर्म की स्पष्ट पहचान नहीं होती, और वह निर्णयों में उलझी रहती है।

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🧘‍♂️ श्लोक 32

अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसावृता |
सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी ||

📚 हिंदी अनुवाद:

जो बुद्धि तमोगुण से ढकी हुई होने के कारण अधर्म को धर्म और धर्म को अधर्म समझती है – वह तामसी बुद्धि है।

🧠 सरल व्याख्या:

तामसी बुद्धि सब कुछ उल्टा देखती है — अधार्मिक कार्य को धर्म मानती है और सत्य को असत्य। यह अज्ञान से ग्रसित होती है।

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🧘‍♂️ श्लोक 33

धृत्या यया धारयते मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः |
योगेनाव्यभिचारिण्या धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी ||

📚 हिंदी अनुवाद:

जो धृति (स्थिरता) मन, प्राण और इन्द्रियों की क्रियाओं को योगपूर्वक दृढ़ता से साधती है – वह सात्त्विक धृति है।

🧠 सरल व्याख्या:

सात्त्विक धैर्य वही है, जो मन और इन्द्रियों को नियंत्रित करके साधना, भक्ति और कर्तव्य में टिकाए रखे।

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🧘‍♂️ श्लोक 34

यया तु धर्मकामार्थान्धृत्या धारयतेऽर्जुन |
प्रसङ्गेन फलाकाङ्क्षी धृतिः सा पार्थ राजसी ||

📚 हिंदी अनुवाद:

हे अर्जुन! जो धृति केवल धर्म, अर्थ और काम की प्राप्ति के लिए, फल की इच्छा से की जाती है – वह राजसी धृति है।

🧠 सरल व्याख्या:

राजसी धैर्य वह है जो इच्छाओं को पूरा करने के लिए किया जाए, और किसी कार्य में जुनून या लोभ से अटका रहे।

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🧘‍♂️ श्लोक 35

यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च |
न विमुञ्चति दुर्मेधा धृतिः सा पार्थ तामसी ||

📚 हिंदी अनुवाद:

जो धृति मूर्खता के कारण भय, शोक, आलस्य, विषाद और अहंकार को नहीं छोड़ती – वह तामसी धृति है।

🧠 सरल व्याख्या:

तामसी धैर्य वह है जिसमें व्यक्ति नकारात्मकता में फँसा रहता है, दुख, डर, आलस्य या अहंकार से बाहर नहीं निकलता।

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🧘‍♂️ श्लोक 36

सुखं त्विदानीं त्रिविधं श्रृणु मे भरतर्षभ |
अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति ||

📚 हिंदी अनुवाद:

हे भरतश्रेष्ठ! अब मैं तुम्हें तीन प्रकार के सुख के बारे में बताता हूँ, जिनमें एक ऐसा है जो अभ्यास से प्रिय होता है और दुख का अंत करता है।

🧠 सरल व्याख्या:

भगवान अब तीन प्रकार के सुखों की चर्चा करते हैं – और सबसे श्रेष्ठ वह है जो अभ्यास से आता है, और अन्ततः दुख मिटाता है।

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🧘‍♂️ श्लोक 37

यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम् |
तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम् ||

📚 हिंदी अनुवाद:

जो सुख प्रारंभ में विष की भाँति कष्टदायक लगता है, परन्तु अन्त में अमृत जैसा होता है – वह सात्त्विक सुख है, जो आत्मा की शुद्ध बुद्धि से उत्पन्न होता है।

🧠 सरल व्याख्या:

साधना, संयम, सेवा आदि प्रारंभ में कठिन लगते हैं, परंतु अंततः शांति और आनंद देते हैं — यही सात्त्विक सुख है।

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🧘‍♂️ श्लोक 38

विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम् |
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम् ||

📚 हिंदी अनुवाद:

जो सुख इन्द्रियों और विषयों के संपर्क से उत्पन्न होता है और प्रारंभ में अमृत समान लगता है, परन्तु अंत में विष के समान दुखदायक होता है – वह राजसी सुख है।

🧠 सरल व्याख्या:

इन्द्रिय भोग (जैसे स्वाद, वासना, विलास) पहले तो अच्छा लगता है, लेकिन अंत में दुख ही देता है — यह राजसी सुख है।

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🧘‍♂️ श्लोक 39

यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः |
निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम् ||

📚 हिंदी अनुवाद:

जो सुख प्रारंभ और अंत दोनों में आत्मा को मोहित करता है, और जो नींद, आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न होता है – वह तामसिक सुख है।

🧠 सरल व्याख्या:

जो सुख अज्ञान, नींद, जड़ता और आलस्य से आता है – वह मन को गिराता है और आत्मा को अंधकार में डुबोता है। यह तामसिक सुख है।

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🧘‍♂️ श्लोक 40

न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः |
सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात्त्रिभिर्गुणैः ||

📚 हिंदी अनुवाद:

न तो पृथ्वी पर, न स्वर्ग में और न ही देवताओं में कोई ऐसा प्राणी है जो इन तीन गुणों – सत्त्व, रज, और तम – से रहित हो।

🧠 सरल व्याख्या:

हर प्राणी इन तीन गुणों (सात्त्विक, राजसिक, तामसिक) से बंधा हुआ है। कोई भी इससे पूरी तरह अलग नहीं है।

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🧘‍♂️ श्लोक 41

ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप |
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः ||

📚 हिंदी अनुवाद:

हे परंतप अर्जुन! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र – इन चारों के कर्म उनके स्वभावजन्य गुणों के अनुसार विभाजित हैं।

🧠 सरल व्याख्या:

मनुष्य का कार्य जन्म नहीं, गुण और स्वभाव तय करते हैं। ईश्वर ने समाज को कर्म आधारित व्यवस्था दी है।

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🧘‍♂️ श्लोक 42

शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च |
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ||

📚 हिंदी अनुवाद:

शांति, इन्द्रिय-निग्रह, तप, शुद्धता, क्षमा, सरलता, ज्ञान, विज्ञान और आस्तिकता – ये ब्राह्मण के स्वभावजन्य कर्म हैं।

🧠 सरल व्याख्या:

जो व्यक्ति शांत, ज्ञानी, श्रद्धावान और संयमी होता है, उसका कार्य है — ज्ञान का प्रचार, तपस्या और धर्म का संरक्षण।

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🧘‍♂️ श्लोक 43

शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम् |
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम् ||

📚 हिंदी अनुवाद:

शौर्य, तेज, धैर्य, कुशलता, युद्ध में न भागना, दान और नेतृत्व – ये सब क्षत्रिय के स्वभावजन्य कर्म हैं।

🧠 सरल व्याख्या:

रक्षा, सेवा, शासन, और दान – ये कर्तव्य वीर, साहसी और निडर लोगों (क्षत्रियों) के हैं।

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🧘‍♂️ श्लोक 44

कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् |
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् ||

📚 हिंदी अनुवाद:

कृषि, गौ-रक्षा, व्यापार – ये वैश्य के कर्म हैं; सेवा करना – यह शूद्र का स्वाभाविक कर्म है।

🧠 सरल व्याख्या:

वैश्य: अन्न, धन और व्यापार की व्यवस्था करते हैं।
शूद्र: सेवा, सहयोग और कार्य निष्पादन करते हैं।
👉 दोनों ही समाज के लिए अनिवार्य हैं।

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🧘‍♂️ श्लोक 45

स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः |
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु ||

📚 हिंदी अनुवाद:

हर व्यक्ति अपने स्वभावजन्य कर्म में लगे रहकर सिद्धि को प्राप्त करता है। वह कैसे होता है, वह अब मैं बताता हूँ।

🧠 सरल व्याख्या:

कर्म में लगे रहना ही सिद्धि का मार्ग है। जो अपने कार्य को पूर्ण श्रद्धा से करता है, वही पूर्णता को पाता है।

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🧘‍♂️ श्लोक 46

यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् |
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ||

📚 हिंदी अनुवाद:

जिस परमेश्वर से समस्त प्राणी उत्पन्न हुए हैं और जिससे यह सारा संसार व्याप्त है – उस परमेश्वर की पूजा अपने कर्मों द्वारा करके मनुष्य सिद्धि को प्राप्त करता है।

🧠 सरल व्याख्या:

ईश्वर की पूजा मंदिर में ही नहीं, बल्कि अपने कर्मों के द्वारा हो सकती है। अपने कर्तव्य को ईश्वर सेवा मानकर करो।

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🧘‍♂️ श्लोक 47

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् |
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ||

📚 हिंदी अनुवाद:

दूसरों के उत्तम धर्म से अपना दोषयुक्त धर्म श्रेष्ठ है। स्वभाव से नियत कार्य करने पर पाप नहीं होता।

🧠 सरल व्याख्या:

स्वधर्म (अपना कर्म) करना चाहिए, भले उसमें त्रुटियाँ हों। दूसरों का काम अपनाना मोह और पाप की ओर ले जाता है।

🍁🌺🍁

🧘‍♂️ श्लोक 48

सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत् |
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाऽग्निरिवावृताः ||

📚 हिंदी अनुवाद:

हे कौन्तेय! स्वाभाविक कर्म दोषयुक्त भी हो तो भी उसका त्याग नहीं करना चाहिए, क्योंकि जैसे अग्नि धुएँ से ढकी रहती है, वैसे ही सब कर्म दोषयुक्त होते हैं।

🧠 सरल व्याख्या:

कोई भी कर्म पूरी तरह शुद्ध नहीं होता। इसलिए दोष के डर से अपने कर्तव्य को न छोड़ें, बल्कि उसे श्रद्धा से करें।

🍁🌺🍁

🧘‍♂️ श्लोक 49

असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः |
नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति ||

📚 हिंदी अनुवाद:

जो व्यक्ति सर्वत्र आसक्ति रहित बुद्धि वाला, आत्मसंयमी और इच्छारहित होता है – वह संन्यास के द्वारा कर्मरहित स्थिति को प्राप्त करता है।

🧠 सरल व्याख्या:

संन्यास का अर्थ कर्म छोड़ना नहीं, बल्कि मोह, इच्छा और फल की आसक्ति से मुक्त होना है। यही परम स्थिति है।

🍁🌺🍁

🧘‍♂️ श्लोक 50

सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे |
समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा ||

📚 हिंदी अनुवाद:

हे कौन्तेय! अब सुनो कि जो व्यक्ति सिद्धि को प्राप्त कर चुका है, वह परम ब्रह्म को कैसे प्राप्त करता है – मैं संक्षेप में बताता हूँ।

🧠 सरल व्याख्या:

अब भगवान श्रीकृष्ण मोक्ष की अंतिम अवस्था की व्याख्या शुरू करते हैं — जब व्यक्ति सिद्ध हो जाता है, तब वह ब्रह्म को कैसे पाता है।

🍁🌺🍁

🧘‍♂️ श्लोक 51–52

बुद्ध्या विशुद्धया युक्तो धृत्याऽऽत्मानं नियम्य च |
शब्दादीन्विषयान्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च ||
विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानसः |
ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः ||

📚 हिंदी अनुवाद:

जो व्यक्ति शुद्ध बुद्धि, धैर्य और आत्म-नियंत्रण से युक्त है, विषयों का त्याग करता है, राग-द्वेष से मुक्त होता है, एकांत प्रिय है, कम खाता है, वाणी, शरीर और मन को वश में रखता है, ध्यानयोग में रत रहता है और वैराग्य को अपनाता है — वह मोक्ष के योग्य है।

🧠 सरल व्याख्या:

मोक्ष प्राप्त करने वाला साधक संपूर्ण संयम, ध्यान, वैराग्य और संतुलन में रहता है।

🍁🌺🍁

🧘‍♂️ श्लोक 53

अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम् |
विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते ||

📚 हिंदी अनुवाद:

जो अहंकार, बल, दम्भ, काम, क्रोध और संग्रह का त्याग करता है, जो निर्मम और शांत होता है — वह ब्रह्म के लिए योग्य होता है।

🧠 सरल व्याख्या:

मोक्ष के मार्ग में यह छह दोष बाधा हैं – अहंकार, क्रोध, लालच, वासना, दंभ और संग्रह। इनसे मुक्त व्यक्ति ही ब्रह्म में स्थित होता है।

🍁🌺🍁

🧘‍♂️ श्लोक 54

ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति |
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम् ||

📚 हिंदी अनुवाद:

जो ब्रह्म में स्थित होकर प्रसन्न रहता है, न शोक करता है, न इच्छा करता है, जो सभी में समभाव रखता है – वह मेरी परम भक्ति को प्राप्त करता है।

🧠 सरल व्याख्या:

जब साधक निर्लिप्त, निःस्वार्थ, समान दृष्टि वाला हो जाता है – तब वह श्रीकृष्ण की परम भक्ति का पात्र बनता है।

🍁🌺🍁

🧘‍♂️ श्लोक 55

भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः |
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् ||

📚 हिंदी अनुवाद:

भक्तिपूर्वक मुझे तत्व से जानने पर ही कोई मुझे जान पाता है और फिर वह मुझे प्राप्त होता है।

🧠 सरल व्याख्या:

ज्ञान से मोक्ष नहीं, भक्ति से मोक्ष होता है — क्योंकि भक्ति से ही भगवान का सच्चा अनुभव होता है।

🍁🌺🍁

🧘‍♂️ श्लोक 56

सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः |
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम् ||

📚 हिंदी अनुवाद:

जो सभी कर्म करते हुए भी मुझ पर निर्भर रहता है, वह मेरी कृपा से शाश्वत पद को प्राप्त करता है।

🧠 सरल व्याख्या:

कर्म छोड़ने की नहीं, भावना बदलने की जरूरत है। जो कर्म करते हुए भी ईश्वर पर निर्भर होता है, वह मोक्ष पाता है।

🍁🌺🍁

🧘‍♂️ श्लोक 57

चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्परः |
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव ||

📚 हिंदी अनुवाद:

हे अर्जुन! अपने सभी कर्मों को मन से मुझे अर्पित कर, मेरे परायण होकर, बुद्धियोग से मुझे प्राप्त कर, और निरंतर मुझे स्मरण कर।

🧠 सरल व्याख्या:

भगवान कहते हैं – अपने कर्म मुझे समर्पित करो, बुद्धि को मेरे साथ जोड़ो, और मुझमें ही मन लगाओ।

🍁🌺🍁

🧘‍♂️ श्लोक 58

मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि |
अथ चेत्त्वमहंकारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि ||

📚 हिंदी अनुवाद:

यदि तुम मन को मुझमें लगाओगे, तो मेरी कृपा से सब बाधाओं को पार कर लोगे। पर यदि अहंकार से मेरी न सुनोगे, तो नष्ट हो जाओगे।

🧠 सरल व्याख्या:

ईश्वर सहयोग चाहते हैं, गुलामी नहीं। जो मन से जुड़ता है, वह बचेगा; जो अहंकार करता है, वह बिखरेगा।

🍁🌺🍁

🧘‍♂️ श्लोक 59

यदि त्वं अहंकारं आश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे |
मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति ||

📚 हिंदी अनुवाद:

यदि तुम अहंकार से सोचते हो कि "मैं युद्ध नहीं करूंगा", तो तुम्हारा यह निश्चय व्यर्थ होगा। क्योंकि प्रकृति तुम्हें फिर भी युद्ध में लगाएगी।

🧠 सरल व्याख्या:

हम चाहे जो सोचें, प्रकृति (स्वभाव) हमें हमारा कर्म करवाती है। कर्म से भागना विकल्प नहीं है।

🍁🌺🍁

🧘‍♂️ श्लोक 60

स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा |
कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽपि तत् ||

📚 हिंदी अनुवाद:

हे अर्जुन! मोहवश तुम जो कर्म नहीं करना चाहते, उसे भी स्वभावजन्य कर्म से बाध्य होकर तुम्हें करना ही पड़ेगा।

🧠 सरल व्याख्या:

कर्म से डरकर हटना व्यर्थ है। जो किया जाना ही चाहिए, उसे ईश्वर किसी न किसी रूप में करवाते ही हैं।

🍁🌺🍁

🧘‍♂️ श्लोक 61

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति |
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया ||

📚 हिंदी अनुवाद:

ईश्वर सभी प्राणियों के हृदय में स्थित हैं, और उन्हें अपनी माया से जैसे मशीन में लगे हुए पुर्जे घुमते हैं, वैसे ही घुमा रहे हैं।

🧠 सरल व्याख्या:

ईश्वर हृदय में स्थित चालक हैं। हम चाहे कुछ भी करें, सब कुछ उनकी प्रेरणा और व्यवस्था से हो रहा है।

🍁🌺🍁

🧘‍♂️ श्लोक 62

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत |
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम् ||

📚 हिंदी अनुवाद:

हे भारत! तू उसी ईश्वर की शरण में जा, पूरी निष्ठा से। उसकी कृपा से तू परम शांति और शाश्वत पद को प्राप्त करेगा।

🧠 सरल व्याख्या:

ईश्वर की शरण ही हर संकट, भ्रम और दुख का समाधान है। वही मोक्ष की अंतिम सीढ़ी है।

🍁🌺🍁

🧘‍♂️ श्लोक 63

इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया |
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु ||

📚 हिंदी अनुवाद:

मैंने तुझे यह सबसे गुप्त ज्ञान बता दिया है। अब तू इसे भली-भाँति विचार कर और जैसा उचित समझे, वैसा कर।

🧠 सरल व्याख्या:

भगवान बलपूर्वक आदेश नहीं देते। वे ज्ञान देते हैं, फिर कहते हैं — अब निर्णय तुम्हारा है।

🍁🌺🍁

🧘‍♂️ श्लोक 64

सर्वगुह्यतमं भूयः शृणु मे परमं वचः |
इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम् ||

📚 हिंदी अनुवाद:

अब फिर से मैं तुझसे सबसे गुप्त वचन कहता हूँ, क्योंकि तू मुझे प्रिय है। यह तेरे हित में है, सुन।

🧠 सरल व्याख्या:

भगवान अर्जुन को अपना प्रिय मित्र मानकर अब अंतिम रहस्य बताते हैं — भक्ति का परम सूत्र।

🍁🌺🍁

🧘‍♂️ श्लोक 65

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु |
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ||

📚 हिंदी अनुवाद:

मेरा स्मरण कर, मेरा भक्त बन, मेरी पूजा कर और मुझे नमस्कार कर। ऐसा करने से तू निश्चय ही मुझे प्राप्त करेगा — यह मेरा वचन है, क्योंकि तू मेरा प्रिय है।

🧠 सरल व्याख्या:

भक्ति, प्रेम, स्मरण और समर्पण – यही भगवान श्रीकृष्ण तक पहुँचने का सबसे सरल मार्ग है। और भगवान खुद इसका वादा करते हैं।

🍁🌺🍁

🧘‍♂️ श्लोक 66

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ||

📚 हिंदी अनुवाद:

सब धर्मों को त्यागकर मेरी ही शरण में आ जा। मैं तुझे सभी पापों से मुक्त कर दूँगा। तू शोक मत कर।

🧠 सरल व्याख्या (महाश्लोक):

यह गीता का सार है —

❝ सब कुछ छोड़, केवल मेरी शरण में आ। मैं तेरा सब कुछ सम्हाल लूंगा।❞
यह वचन पूर्ण समर्पण की पराकाष्ठा है।

🍁🌺🍁

🧘‍♂️ श्लोक 67

इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन |
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति ||

📚 हिंदी अनुवाद:

यह उपदेश न तो तप न करने वाले को, न भक्तिहीन को, न सेवा न करने वाले को और न ही मुझमें दोष देखने वाले को कभी बताना चाहिए।

🧠 सरल व्याख्या:

गीता का ज्ञान पवित्र और दिव्य है — यह आलसी, नास्तिक या आलोचक को नहीं देना चाहिए।

🍁🌺🍁

🧘‍♂️ श्लोक 68

य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति |
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः ||

📚 हिंदी अनुवाद:

जो व्यक्ति इस परम रहस्य को मेरे भक्तों को सुनाएगा, वह मेरी परम भक्ति को प्राप्त करेगा और अंत में मुझे ही प्राप्त होगा।

🧠 सरल व्याख्या:

गीता का प्रचार करने वाला भगवान का विशेष प्रिय होता है। वह न केवल ज्ञान देता है, बल्कि मोक्ष पाता है।

🍁🌺🍁

🧘‍♂️ श्लोक 69

न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः |
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि ||

📚 हिंदी अनुवाद:

मेरे लिए उससे बढ़कर कोई प्रिय नहीं है, जो इस ज्ञान का प्रचार करता है। पृथ्वी पर कोई दूसरा मुझसे अधिक प्रिय नहीं होगा।

🧠 सरल व्याख्या:

गीता प्रचारक भगवान को सर्वाधिक प्रिय होते हैं — वे सच्चे ईशदूत होते हैं।

🍁🌺🍁

🧘‍♂️ श्लोक 70

अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयोः |
ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः ||

📚 हिंदी अनुवाद:

जो व्यक्ति हमारे इस धर्मयुक्त संवाद (गीता) का अध्ययन करेगा, वह ज्ञान-यज्ञ के द्वारा मेरी पूजा करेगा – ऐसा मेरा मत है।

🧠 सरल व्याख्या:

गीता पाठ करना भी पूजा है। यह ज्ञान-यज्ञ है — जो भगवान को अतिप्रिय है।

🍁🌺🍁

🧘‍♂️ श्लोक 71

श्रद्धावाननसूयश्च श्रृणुयादपि यो नरः |
सोऽपि मुक्तः शुभाँल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम् ||

📚 हिंदी अनुवाद:

जो श्रद्धावान और दोष न देखने वाला मनुष्य केवल गीता को सुनता है, वह भी पुण्य प्राप्त करके उत्तम लोकों को प्राप्त करता है।

🧠 सरल व्याख्या:

केवल श्रद्धा से गीता को सुनना भी पुण्य देता है। समझ न भी आए, सुनते रहना ही तप है।

🍁🌺🍁

🧘‍♂️ श्लोक 72

कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा |
कच्चिदज्ञानसंमोहः प्रणष्टस्ते धनञ्जय ||

📚 हिंदी अनुवाद:

हे अर्जुन! क्या तुमने यह ज्ञान एकाग्रचित्त होकर सुना? और क्या तुम्हारा अज्ञान एवं मोह दूर हो गया?

🧠 सरल व्याख्या:

भगवान पूछते हैं – "क्या अब तुम समझे अर्जुन? क्या तुम्हारा संशय मिट गया?"

🍁🌺🍁

🧘‍♂️ श्लोक 73

अर्जुन उवाच |

नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाऽच्युत |
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव ||

📚 हिंदी अनुवाद (अर्जुन बोले):

हे अच्युत! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया है, मेरी स्मृति लौट आई है, मैं अब स्थिर हूँ और संदेह रहित हूँ — अब मैं आपका वचन पालन करूंगा।

🧠 सरल व्याख्या:

अर्जुन ने ज्ञान, शक्ति और आत्मबल पा लिया। अब वह तैयार है अपने कर्तव्य को निभाने।

🍁🌺🍁

🧘‍♂️ श्लोक 74

सञ्जय उवाच |

इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः |
संवादमिममश्रौषमद्भुतं रोमहार्षणम् ||

📚 हिंदी अनुवाद (संजय बोले):

इस प्रकार मैंने वासुदेव और महात्मा पार्थ के बीच यह अद्भुत संवाद सुना जो रोमांच उत्पन्न करने वाला है।

🧠 सरल व्याख्या:

संजय कहता है – यह दैवी संवाद अद्भुत और प्रेरक था — जिसने मन और आत्मा दोनों को झकझोर दिया।

🍁🌺🍁

🧘‍♂️ श्लोक 75

व्यासप्रसादाच्छ्रुतवानेतद्गुह्यमहं परम् |
योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम् ||

📚 हिंदी अनुवाद:

वेदव्यास जी की कृपा से मैंने यह परम रहस्य सुना, जो स्वयं योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा।

🧠 सरल व्याख्या:

धन्य है वेदव्यास, जिनकी कृपा से संजय को यह दिव्य संवाद सीधे श्रीकृष्ण से सुनने को मिला।

🍁🌺🍁

🧘‍♂️ श्लोक 76

राजन्संस्मृत्य संस्मृत्य संवादमिममद्भुतम् |
केशवार्जुनयोः पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहुः ||

📚 हिंदी अनुवाद:

हे राजा! बार-बार श्रीकृष्ण और अर्जुन के इस पावन संवाद को स्मरण कर मैं बार-बार आनंदित हो रहा हूँ।

🧠 सरल व्याख्या:

भगवद्गीता का चिंतन, मनन, बार-बार स्मरण — यही आत्मिक आनंद का स्रोत है।

🍁🌺🍁

🧘‍♂️ श्लोक 77

तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरेः |
विस्मयो मे महान् राजन्हृष्यामि च पुनः पुनः ||

📚 हिंदी अनुवाद:

और भगवान श्रीहरि के उस अद्भुत विराट रूप को स्मरण कर मैं बार-बार आश्चर्य और आनंद से भर जाता हूँ।

🧠 सरल व्याख्या:

संजय को श्रीकृष्ण का विराट रूप बार-बार भाव-विभोर करता है — यही ईश्वरीय अनुभूति है।

🍁🌺🍁

🧘‍♂️ श्लोक 78

यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः |
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ||

📚 हिंदी अनुवाद:

जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं और जहाँ धनुर्धारी अर्जुन हैं – वहाँ निश्चित ही श्री (संपदा), विजय, वैभव और नीति होती है — ऐसा मेरा मत है।

🧠 सरल व्याख्या:

जहाँ भगवान श्रीकृष्ण हों और उनके भक्त कर्मयोगी – वहाँ सदैव विजय, नीति और संपत्ति होती है। यही श्रीमद्भगवद्गीता का अंतिम उपदेश है।


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