श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 17 – श्रद्धा के तीन प्रकार | श्रद्धात्रयविभाग योग
श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 17 – श्रद्धा के तीन प्रकार | श्रद्धात्रयविभाग योग
📖 श्रीमद्भगवद्गीता – अध्याय 17
श्रद्धात्रयविभाग योग – “श्रद्धा के तीन प्रकार”
📌 Shlok 1–28 with Hindi Meaning and Easy Explanation
🔶 📚 परिचय ( Intro ):
🙏 श्रीमद्भगवद्गीता का 17वां अध्याय “श्रद्धात्रयविभाग योग” है।
इसमें भगवान श्रीकृष्ण ने बताया कि श्रद्धा कैसी हो सकती है – सात्त्विक, राजसिक या तामसिक।
भोजन, दान, यज्ञ, और तप के गुण भी श्रद्धा के अनुसार बदलते हैं।
यह अध्याय जीवन की दिशा तय करने वाली श्रद्धा का गहरा ज्ञान देता है।
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🕉️ श्लोक 1
अर्जुन उवाच —
ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः।
तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः।।1।।
🔶 हिंदी अनुवाद:
हे कृष्ण! जो लोग शास्त्र-विधि को त्यागकर श्रद्धा से युक्त होकर पूजा करते हैं, उनकी श्रद्धा का स्वरूप क्या है? क्या वह सत्त्वगुण से युक्त है, रजोगुण से या तमोगुण से?
🔷 सरल व्याख्या:
अर्जुन पूछते हैं कि जो लोग धर्मग्रंथों की बताई विधि न मानकर भी पूरी श्रद्धा से पूजा करते हैं, उनकी यह श्रद्धा किस गुण की होती है – सत्त्व (शुद्ध), रजस (भोग) या तमस (अज्ञान)?
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🕉️ श्लोक 2
श्रीभगवानुवाच —
त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा।
सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु।।2।।
🔶 हिंदी अनुवाद:
भगवान बोले – हे अर्जुन! देहधारी प्राणियों की श्रद्धा जन्मजात स्वभाव से तीन प्रकार की होती है – सात्त्विक, राजसिक और तामसिक। अब उसे मुझसे सुनो।
🔷 सरल व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि श्रद्धा भी तीन तरह की होती है, जो व्यक्ति के स्वभाव पर निर्भर करती है – शुद्ध, भोगवादी या अंधविश्वास से भरी।
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🕉️ श्लोक 3
सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः।।3।।
🔶 हिंदी अनुवाद:
हे भारत (अर्जुन)! प्रत्येक मनुष्य की श्रद्धा उसके स्वभाव (गुणों) के अनुसार होती है। मनुष्य जैसा श्रद्धा वाला होता है, वही वास्तव में वह होता है।
🔷 सरल व्याख्या:
जिसकी जैसी श्रद्धा होती है, उसकी वैसी ही पहचान बनती है। श्रद्धा किसी के व्यक्तित्व को दर्शाती है।
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🕉️ श्लोक 4
यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः।
प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जनाः।।4।।
🔶 हिंदी अनुवाद:
सात्त्विक लोग देवताओं की पूजा करते हैं, राजसिक लोग यक्षों और राक्षसों की, और तामसिक लोग प्रेतों और भूतों की पूजा करते हैं।
🔷 सरल व्याख्या:
मनुष्य अपनी श्रद्धा के अनुसार विभिन्न शक्तियों की पूजा करते हैं – शुद्ध मन वाले देवताओं को, भोगी लोग शक्तिशाली अदृश्य शक्तियों को, और अज्ञानियों की भूत-प्रेत में श्रद्धा होती है।
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🕉️ श्लोक 5
अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः।
दम्भाहंकारसंयुक्ताः कामरागबलान्विताः।।5।।
🔶 हिंदी अनुवाद:
जो लोग शास्त्रों में निर्दिष्ट न होने वाला कठोर तप करते हैं, जो दंभ, अहंकार और कामना की प्रेरणा से युक्त होता है...
🔷 सरल व्याख्या:
कुछ लोग दिखावे और घमंड से प्रेरित होकर बहुत कठोर तप करते हैं, जो न तो शास्त्रसम्मत है और न ही आत्मविकास में सहायक।
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🕉️ श्लोक 6
कर्षयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः।
मां चैवान्तःशरीरस्थं तान्विद्ध्यासुरनिश्चयान्।।6।।
🔶 हिंदी अनुवाद:
वे अपने शरीर में स्थित पंचभूतों को कष्ट देते हैं, और मुझ परमात्मा को भी, जो उनके भीतर निवास करता है। ऐसे लोगों को आसुरी प्रकृति का समझो।
🔷 सरल व्याख्या:
जो लोग शरीर को बिना वजह कष्ट देकर तप करते हैं, वे खुद को और मुझ भगवान को भी दुख देते हैं। ऐसे लोग राक्षसी स्वभाव के माने जाते हैं।
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🕉️ श्लोक 7
आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः।
यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं शृणु।।7।।
🔶 हिंदी अनुवाद:
सभी व्यक्तियों को प्रिय भोजन भी तीन प्रकार का होता है, यज्ञ, तप और दान भी। अब उनके भेदों को सुनो।
🔷 सरल व्याख्या:
जैसे श्रद्धा के प्रकार होते हैं, वैसे ही भोजन, पूजा, तपस्या और दान भी तीन प्रकार के होते हैं – सात्त्विक, राजसिक और तामसिक।
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🕉️ श्लोक 8
आयुःसत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः।
रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहारा सात्त्विकप्रियाः।।8।।
🔶 हिंदी अनुवाद:
जो भोजन आयु, बल, स्वास्थ्य, सुख और प्रसन्नता को बढ़ाने वाले, स्वादिष्ट, चिकने, स्थिर और हृदय को प्रिय हों – वे सात्त्विक व्यक्तियों को प्रिय होते हैं।
🔷 सरल व्याख्या:
सात्त्विक लोग ऐसा भोजन पसंद करते हैं जो शरीर को ताजगी, शक्ति और मन को शांति दे – जैसे दूध, घी, फल, हल्का व ताजा खाना।
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🕉️ श्लोक 9
कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः।
आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः।।9।।
🔶 हिंदी अनुवाद:
बहुत तीखे, खट्टे, नमकीन, गर्म, चटपटे, रूखे और जलनकारक भोजन – ये राजसिक लोगों को प्रिय होते हैं और दुःख, शोक, व रोग देने वाले होते हैं।
🔷 सरल व्याख्या:
राजसिक लोग तेज और मसालेदार खाना पसंद करते हैं, जिससे शरीर में बेचैनी, गर्मी और रोग उत्पन्न होते हैं।
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🕉️ श्लोक 10
यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत्।
उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम्।।10।।
🔶 हिंदी अनुवाद:
बासी, बिना स्वाद का, सड़ा हुआ, खराब, दूसरों का झूठन, और अपवित्र भोजन – ये तामसिक लोगों को प्रिय होते हैं।
🔷 सरल व्याख्या:
तामसिक व्यक्ति ऐसे भोजन को पसंद करते हैं जो बासी, अशुद्ध और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है – जैसे जूठा या बहुत पुराना खाना।
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🕉️ श्लोक 11
अफलाकाङ्क्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते।
यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः।।11।।
🔶 हिंदी अनुवाद:
जो यज्ञ शास्त्रों के अनुसार किया जाए, फल की इच्छा के बिना, केवल कर्तव्य समझकर – वह सात्त्विक यज्ञ कहलाता है।
🔷 सरल व्याख्या:
सच्चा यज्ञ वह है जो बिना स्वार्थ, ईश्वर की प्रसन्नता के लिए किया जाए। ऐसे यज्ञ में मन की शुद्धता और नियम पालन होता है।
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🕉️ श्लोक 12
अभिसंधाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत्।
इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम्।।12।।
🔶 हिंदी अनुवाद:
हे भरतश्रेष्ठ! जो यज्ञ फल पाने या दिखावे के लिए किया जाए – उसे राजसिक यज्ञ जानो।
🔷 सरल व्याख्या:
राजसिक यज्ञ दिखावे के लिए होता है – "लोग क्या कहेंगे?" वाले भाव से किया जाता है, न कि सच्ची भक्ति से।
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🕉️ श्लोक 13
विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम्।
श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते।।13।।
🔶 हिंदी अनुवाद:
जो यज्ञ विधियों के बिना, भोजन अर्पण किए बिना, मंत्रों और दक्षिणा के बिना तथा श्रद्धा रहित किया जाए – उसे तामसिक यज्ञ कहते हैं।
🔷 सरल व्याख्या:
तामसिक यज्ञ में न तो विधि होती है, न श्रद्धा। बस परंपरा निभाने जैसा दिखावा होता है, और वह शुभ फल नहीं देता।
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🕉️ श्लोक 14
देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते।।14।।
🔶 हिंदी अनुवाद:
देवता, ब्राह्मण, गुरु और विद्वानों की पूजा करना, पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा – ये शारीरिक तप कहलाता है।
🔷 सरल व्याख्या:
जो अपने शरीर से अच्छे कर्म करता है – जैसे गुरु सेवा, पवित्रता, संयम – वही सच्चा तपस्वी है।
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🕉️ श्लोक 15
अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्।
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते।।15।।
🔶 हिंदी अनुवाद:
जो वाणी दूसरों को दुख न दे, सत्य, प्रिय और हितकारी हो; साथ ही स्वाध्याय (शास्त्र पठन) – ये वाणी का तप है।
🔶 सरल व्याख्या:
मीठा, सत्य और सबका भला करने वाला बोलना – यही वाणी का तप है। जो बोल से दूसरों को शांति दे, वही सच्चा साधक है।
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🕉️ श्लोक 16
मनःप्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते।।16।।
🔶 हिंदी अनुवाद:
मन की प्रसन्नता, सौम्यता, मौन, आत्मसंयम और भावों की शुद्धता – यह मानसिक तप कहलाता है।
🔷 सरल व्याख्या:
मन शांत और शुद्ध रखना, मौन और विनम्र रहना – यही मन का तप है। आंतरिक साधना बाहरी तप से भी श्रेष्ठ होती है।
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🕉️ श्लोक 17
श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरैः।
अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते।।17।।
🔶 हिंदी अनुवाद:
जो तप तीनों प्रकार से श्रद्धा सहित, फल की इच्छा रहित किया जाए – वह सात्त्विक तप कहलाता है।
🔷 सरल व्याख्या:
जो तप श्रद्धा, सच्चाई और निस्वार्थता से किया जाता है – वही सात्त्विक तप है। उसका उद्देश्य केवल आत्मविकास होता है।
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🕉️ श्लोक 18
सत्कारमानपूजार्थं तपो दम्भेन चैव यत्।
क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम्।।18।।
🔶 हिंदी अनुवाद:
जो तप आदर, मान और पूजा पाने के लिए किया जाए – वह राजसिक तप कहलाता है, और वह स्थायी नहीं होता।
🔷 सरल व्याख्या:
राजसिक तप दिखावे वाला होता है – “मुझे कोई महान समझे” – ऐसा भाव, जो जल्दी खत्म हो जाता है।
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🕉️ श्लोक 19
मूढग्राहेणात्मनो यत्पीड़या क्रियते तपः।
परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम्।।19।।
🔶 हिंदी अनुवाद:
जो तप मूढ़ता से, अपने शरीर को कष्ट देने हेतु या दूसरों को पीड़ित करने की भावना से किया जाए – वह तामसिक तप कहलाता है।
🔷 सरल व्याख्या:
तामसिक तप हठयोग की तरह होता है – जहाँ बिना समझदारी के शरीर को कष्ट देकर अहंकार दिखाया जाता है या दूसरों को नुकसान पहुँचाया जाता है।
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🕉️ श्लोक 20
दत्तं इति यद्दानं दीयते अनुपकारिणे।
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम्।।20।।
🔶 हिंदी अनुवाद:
जो दान योग्य व्यक्ति को, उचित समय और स्थान पर, बिना किसी स्वार्थ के दिया जाए – वह सात्त्विक दान कहा गया है।
🔷 सरल व्याख्या:
सात्त्विक दान वो है जो सही समय, सही व्यक्ति को, बिना किसी लाभ की अपेक्षा से दिया जाए। यह दान आत्मा को भी शुद्ध करता है।
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🕉️ श्लोक 21
यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः।
दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम्।।21।।
🔶 हिंदी अनुवाद:
जो दान बदले में कुछ पाने की आशा से या फल की इच्छा से दिया जाए, और जिससे कष्ट भी हो – वह दान राजसिक कहलाता है।
🔷 सरल व्याख्या:
राजसिक दान स्वार्थ से किया जाता है – जैसे "मैं दान दूँगा तो मुझे नाम या पुण्य मिलेगा", या "कोई बदले में कुछ देगा"। यह दिखावे वाला होता है।
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🕉️ श्लोक 22
अदेशकाले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते।
असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम्।।22।।
🔶 हिंदी अनुवाद:
जो दान अनुचित समय, स्थान या अपात्र व्यक्ति को किया जाए, बिना सम्मान या श्रद्धा के – वह तामसिक दान कहलाता है।
🔷 सरल व्याख्या:
तामसिक दान वह होता है जो गलत व्यक्ति को, बिना सोच-समझ के, उपेक्षा या घमंड से दिया जाए – ऐसा दान पुण्य की जगह पाप देता है।
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🕉️ श्लोक 23
ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा।।23।।
🔶 हिंदी अनुवाद:
“ॐ तत् सत्” – यह तीनfold (त्रिविध) ब्रह्म का प्रतीक है। इससे ही प्राचीन काल में ब्राह्मणों, वेदों और यज्ञों का विधान हुआ।
🔷 सरल व्याख्या:
भगवान कहते हैं – "ॐ", "तत्", और "सत्" ये तीन शब्द सृष्टि की दिव्यता के प्रतीक हैं। इन्हीं से ब्राह्मण, वेद और यज्ञ पवित्र हुए।
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🕉️ श्लोक 24
तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपःक्रियाः।
प्रवर्तन्ते विधानोक्ताः सततं ब्रह्मवादिनाम्।।24।।
🔶 हिंदी अनुवाद:
इसलिए जो लोग वेदों के अनुसार यज्ञ, दान और तप करते हैं, वे सब “ॐ” कहकर आरंभ करते हैं।
🔷 सरल व्याख्या:
“ॐ” उच्चारण के साथ आरंभ करना सभी शुभ कार्यों को दिव्यता देता है। यह ब्रह्म स्वरूप ऊर्जा को जागृत करता है।
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🕉️ श्लोक 25
तदित्यनभिसन्धाय फलं यज्ञतपःक्रियाः।
दानक्रियाश्च विविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभिः।।25।।
🔶 हिंदी अनुवाद:
मोक्ष की इच्छा रखने वाले लोग फल की अभिलाषा न रखते हुए “तत्” शब्द का उच्चारण करते हैं और यज्ञ, तप तथा दान करते हैं।
🔷 सरल व्याख्या:
“तत्” का अर्थ है – सब कुछ ईश्वर को समर्पित। यह भाव बताता है कि हम जो भी कर रहे हैं, वह बिना स्वार्थ के भगवान के लिए है।
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🕉️ श्लोक 26
सद्भावे साधुभावे च सदित्येतत्प्रयुज्यते।
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते।।26।।
🔶 हिंदी अनुवाद:
“सत्” शब्द का प्रयोग सच्चाई और शुभता को व्यक्त करने के लिए किया जाता है। हे पार्थ! यह उत्तम कर्मों में भी प्रयुक्त होता है।
🔷 सरल व्याख्या:
“सत्” का मतलब होता है – श्रेष्ठता, पवित्रता और सच्चाई। जो भी शुभ कार्य होता है, वह “सत्” से युक्त होता है।
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🕉️ श्लोक 27
यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते।
कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते।।27।।
🔶 हिंदी अनुवाद:
यज्ञ, तप और दान में जो निरंतरता बनी रहती है, उसे भी “सत्” कहा जाता है। और जो कार्य ईश्वर को समर्पित भावना से किए जाते हैं, उन्हें भी “सत्” कहा जाता है।
🔷 सरल व्याख्या:
ईश्वर के लिए जो कार्य निरंतरता और सच्चाई से किया जाता है – चाहे यज्ञ हो, तप हो या दान – वह “सत्” कहलाता है और मोक्ष का मार्ग बनाता है।
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🕉️ श्लोक 28
अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह।।28।।
🔶 हिंदी अनुवाद:
हे पार्थ! जो यज्ञ, दान या तप श्रद्धा के बिना किया जाए, उसे “असत्” कहा जाता है – और वह न इस लोक में फल देता है, न परलोक में।
🔷 सरल व्याख्या:
बिना श्रद्धा, बिना नीयत के किया गया कोई भी शुभ कार्य व्यर्थ होता है। उसका न फल मिलता है, न पुण्य। ऐसा कर्म असत्य कहलाता है।
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✅ अध्याय 17 – समाप्त
🌸 यह अध्याय हमें बताता है कि श्रद्धा कैसी होनी चाहिए, और हमारे भोजन, दान, यज्ञ, तप सभी के पीछे का भाव ही सबसे महत्वपूर्ण होता है।
Jai Shree Radhe Krishna Ji 🙏🪔🚩🔔❤️🕉️🙏
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