श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 3 (श्लोक 31-43) हिंदी अनुवाद और सरल व्याख्या | कर्मयोग का सार
श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 3 (श्लोक 31-43) हिंदी अनुवाद और सरल व्याख्या | कर्मयोग का सार
श्रीमद्भगवद्गीता: अध्याय 3 — कर्म योग (श्लोक 31–43)
(अनुवाद और सरल व्याख्या सहित)
परिचय
श्रीमद्भगवद्गीता का तीसरा अध्याय "कर्म योग" कहलाता है। इस अध्याय में श्रीकृष्ण अर्जुन को कर्म के महत्व को समझाते हैं। श्लोक 31 से 43 तक भगवान श्रीकृष्ण समझाते हैं कि जो भक्त मेरी शिक्षाओं का पालन श्रद्धा और भक्ति से करते हैं, वे जीवन में शांति और मोक्ष की ओर अग्रसर होते हैं। इस भाग में इंद्रियों और मन पर नियंत्रण की शिक्षा भी दी गई है।
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श्लोक:31
ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः।
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः।।
हिंदी अनुवाद:
जो मनुष्य इस मेरे मत को श्रद्धा और बिना द्वेष के नित्य पालन करते हैं, वे समस्त कर्मों से मुक्त हो जाते हैं।
सरल व्याख्या:
जो व्यक्ति गीता में बताई गई मेरी बातों को श्रद्धा से मानते हैं और उसका पालन करते हैं, उन्हें कर्मों का बंधन नहीं होता।
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श्लोक:32
ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्।
सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः।।
हिंदी अनुवाद:
जो लोग इस ज्ञान का तिरस्कार करते हैं और मेरे मत का पालन नहीं करते, वे सभी ज्ञान से विमूढ़ हैं और विनाश को प्राप्त होते हैं।
सरल व्याख्या:
जो मेरे उपदेशों को छोटा समझते हैं और उनका पालन नहीं करते, वे भ्रम में रहकर अंततः दुख पाते हैं।
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श्लोक:33
सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति।।
हिंदी अनुवाद:
ज्ञानी मनुष्य भी अपनी प्रकृति के अनुसार ही व्यवहार करता है। सभी जीव प्रकृति के अनुसार चलते हैं, फिर दमन क्या कर पाएगा?
सरल व्याख्या:
प्रकृति का प्रभाव इतना शक्तिशाली होता है कि ज्ञानी भी उसका पालन करते हैं। जब तक आत्मा जाग्रत न हो, केवल नियंत्रण से कुछ नहीं होगा।
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श्लोक:34
इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ।।
हिंदी अनुवाद:
इंद्रियों के विषयों में राग और द्वेष naturally स्थित हैं। परंतु मनुष्य को उनके वश में नहीं होना चाहिए, क्योंकि वे मार्ग में बाधक हैं।
सरल व्याख्या:
हमें पसंद और नापसंद से ऊपर उठकर विवेक से निर्णय लेना चाहिए, वरना ये हमारी आध्यात्मिक उन्नति में बाधा बनेंगे।
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श्लोक:35
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।
हिंदी अनुवाद:
दोषयुक्त भी स्वधर्म ही श्रेष्ठ है, परधर्म भय उत्पन्न करता है।
सरल व्याख्या:
हर व्यक्ति को अपने स्वाभाविक कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। दूसरे के धर्म का पालन करना खतरनाक हो सकता है।
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श्लोक:36
अर्जुन उवाच —
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः।।
हिंदी अनुवाद:
अर्जुन पूछते हैं – हे कृष्ण! मनुष्य इच्छा न होते हुए भी पाप क्यों करता है, मानो कोई उसे बलात् प्रेरित कर रहा हो?
सरल व्याख्या:
अर्जुन जानना चाहते हैं कि मनुष्य कभी-कभी न चाहते हुए भी बुरे काम क्यों करता है?
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श्लोक:37
श्रीभगवानुवाच —
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः।
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम्।।
हिंदी अनुवाद:
भगवान बोले – यह काम और क्रोध ही हैं जो रजोगुण से उत्पन्न होते हैं, ये महान पापी और भक्षक हैं। इन्हें ही अपना शत्रु जानो।
सरल व्याख्या:
कामना और क्रोध मनुष्य को पथ से विचलित करते हैं। इन्हें ही असली दुश्मन मानो।
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श्लोक:38
धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्।।
हिंदी अनुवाद:
जैसे धुएँ से अग्नि, धूल से दर्पण और गर्भ से भ्रूण ढका रहता है, वैसे ही यह ज्ञान भी कामना से ढका रहता है।
सरल व्याख्या:
इच्छाएँ हमारे भीतर के ज्ञान को ढक देती हैं, जिससे हम सत्य को नहीं देख पाते।
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श्लोक:39
आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा।
कामरूपेण कौन्तेय दुर्निरुण्देन चर्षणा।।
हिंदी अनुवाद:
हे अर्जुन! ज्ञान इस शत्रु रूपी कामना से ढका हुआ है, जो कभी नहीं बुझने वाली तृष्णा के रूप में होता है।
सरल व्याख्या:
कामनाएँ हमेशा ज्ञान को ढक देती हैं। इन्हें जीतना बहुत कठिन है।
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श्लोक:40
इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्।।
हिंदी अनुवाद:
इंद्रियाँ, मन और बुद्धि – ये तीन कामना के निवास स्थान हैं। ये आत्मा के ज्ञान को ढँककर उसे मोह में डालते हैं।
सरल व्याख्या:
कामनाएँ हमारी इंद्रियों, मन और बुद्धि में बसती हैं और हमें भ्रम में डाल देती हैं।
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श्लोक:41
तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्।।
हिंदी अनुवाद:
इसलिए हे अर्जुन! पहले इंद्रियों को वश में करके इस पापी शत्रु को नष्ट कर दो, जो ज्ञान को नष्ट करता है।
सरल व्याख्या:
इंद्रियों पर नियंत्रण पाकर ही इस ज्ञाननाशक कामना को हराया जा सकता है।
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श्लोक:42
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः।।
हिंदी अनुवाद:
इंद्रियाँ इंद्रिय विषयों से श्रेष्ठ हैं, मन इंद्रियों से श्रेष्ठ है, बुद्धि मन से श्रेष्ठ है और आत्मा बुद्धि से भी श्रेष्ठ है।
सरल व्याख्या:
हमारा वास्तविक स्वरूप आत्मा है, जो सबसे ऊपर है। इसी को जानना चाहिए।
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श्लोक:43
एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्।।
हिंदी अनुवाद:
इस प्रकार आत्मा को बुद्धि से जानकर मन को स्थिर करो और कामना रूपी कठिन शत्रु को नष्ट करो।
सरल व्याख्या:
ज्ञान और आत्म-नियंत्रण से कामनाओं को हराया जा सकता है। यही सच्चा विजय मार्ग है।
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