भगवद्गीता अध्याय 9: राजविद्या योग – श्लोक 1 से 34 (हिंदी अनुवाद व व्याख्या)

 भगवद्गीता अध्याय 9: राजविद्या योग – श्लोक 1 से 34 (हिंदी अनुवाद व व्याख्या)

भगवद्गीता अध्याय 9: राजविद्या योग – श्लोक 1 से 34 (हिंदी अनुवाद व व्याख्या)


श्रीमद्भगवद्गीता – अध्याय 9 (राजविद्या राजगुह्य योग)

श्लोक 1 से 34 तक – अनुवाद व सरल व्याख्या सहित

परिचय:

अध्याय 9 में भगवान श्रीकृष्ण ने भक्ति की महिमा को सबसे गोपनीय और श्रेष्ठ ज्ञान के रूप में बताया है।

यह अध्याय सच्चे प्रेम से की गई भक्ति को सर्वोत्तम मार्ग बताता है।

जो भी भक्त भावपूर्वक भगवान को स्मरण करता है, वह परम शांति को प्राप्त करता है।

यहाँ सभी 34 श्लोकों का हिंदी अनुवाद और सरल व्याख्या दी गई है।

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श्लोक 1

श्रीभगवान बोले:

इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे।

ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्॥

हिंदी अनुवाद:

श्रीभगवान ने कहा – हे अर्जुन! मैं तुझसे यह परम गुप्त ज्ञान और विज्ञान सहित ज्ञान कहता हूँ क्योंकि तू ईर्ष्या रहित है। इस ज्ञान को जानकर तू समस्त दुःखों से मुक्त हो जाएगा।

सरल व्याख्या:

भगवान अर्जुन से कह रहे हैं कि अब वे सबसे गूढ़ और पवित्र ज्ञान बताने जा रहे हैं जो सिर्फ उस व्यक्ति को दिया जाता है जो बिना ईर्ष्या वाला है। इस ज्ञान से व्यक्ति संसार के दुखों से मुक्त हो सकता है।

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श्लोक 2

राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्।

प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम्॥

हिंदी अनुवाद:

यह ज्ञान राजाओं का भी राजा है, यह सबसे गुप्त है, अत्यन्त पवित्र है, प्रत्यक्ष अनुभव योग्य है, धर्मानुकूल है, सरलता से करने योग्य है और अविनाशी है।

सरल व्याख्या:

यह ज्ञान न केवल महान है, बल्कि आत्मा के लिए सर्वोत्तम मार्ग भी है। इसे अपने जीवन में उतारना सरल है और इससे जो लाभ होता है, वह स्थायी होता है।

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श्लोक 3

अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप।

अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि॥

हिंदी अनुवाद:

हे परन्तप अर्जुन! जो पुरुष इस धर्म में श्रद्धा नहीं रखते, वे मुझे प्राप्त नहीं कर पाते और मृत्यु रूपी संसार चक्र में लौट जाते हैं।

सरल व्याख्या:

जो लोग भगवान पर विश्वास नहीं करते, वे आध्यात्मिक उन्नति नहीं कर पाते और जन्म-मरण के चक्र में ही फँसे रहते हैं।

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श्लोक 4

मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना।

मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः॥

हिंदी अनुवाद:

यह सम्पूर्ण जगत मेरी अव्यक्त मूर्ति से व्याप्त है; सभी प्राणी मुझमें स्थित हैं, किन्तु मैं उनमें स्थित नहीं हूँ।

सरल व्याख्या:

भगवान कहते हैं कि मैं हर जगह व्याप्त हूँ, सभी मुझमें हैं, परन्तु मेरी वास्तविक सत्ता इन सबसे परे है। मैं किसी में बँधा नहीं हूँ।

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श्लोक 5

न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्।

भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः॥

हिंदी अनुवाद:

प्राणी मुझमें स्थित नहीं हैं, यह मेरा दिव्य योग है। यद्यपि मैं समस्त प्राणियों को धारण करता हूँ, फिर भी मेरा आत्मा उनमें स्थित नहीं होता।

सरल व्याख्या:

यह भगवान की दिव्य लीला है कि वे सब कुछ धारण करते हुए भी इन सबसे परे हैं। यह उनके योगबल का चमत्कार है।

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श्लोक 6

यथाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान्।

तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय॥

हिंदी अनुवाद:

जैसे वायु सदा आकाश में स्थित होकर भी सर्वत्र गति करती है, वैसे ही सभी प्राणी मुझमें स्थित हैं – यह तू समझ।

सरल व्याख्या:

भगवान कहते हैं जैसे वायु आकाश में रहते हुए भी स्वतंत्र है, वैसे ही जीव मुझमें रहते हुए भी अपनी गति में हैं – पर मेरी सत्ता में बँधे हुए हैं।

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श्लोक 7

सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्।

कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम्॥

हिंदी अनुवाद:

हे अर्जुन! कल्प के अंत में सभी प्राणी मेरी प्रकृति में लीन हो जाते हैं, और कल्प के आरंभ में मैं उन्हें पुनः उत्पन्न करता हूँ।

सरल व्याख्या:

हर युग या कल्प के अंत में सब कुछ भगवान में विलीन हो जाता है, और नई सृष्टि के आरंभ में वही भगवान सबको फिर से प्रकट करते हैं।

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श्लोक 8

प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः।

भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेः वशात्॥

हिंदी अनुवाद:

मैं अपनी प्रकृति को अधीन करके बार-बार इस समस्त भूतसमूह को उसकी प्रवृत्ति के अनुसार उत्पन्न करता हूँ।

सरल व्याख्या:

भगवान कहते हैं कि यह सृष्टि मेरी इच्छा से बार-बार बनती है और सभी जीव प्रकृति के अनुसार कार्य करते हैं। सब मेरे नियंत्रण में हैं।

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श्लोक 9

न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय।

उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु॥

हिंदी अनुवाद:

हे धनंजय! ये कर्म मुझे बाँधते नहीं, क्योंकि मैं उन कर्मों में अनासक्त रहकर उदासीन की भाँति स्थित हूँ।

सरल व्याख्या:

हालाँकि भगवान सारी सृष्टि को चलाते हैं, फिर भी वे किसी भी कर्म में लिप्त नहीं होते – क्योंकि वे पूर्ण रूप से निष्काम हैं।

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श्लोक 10

मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्।

हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते॥

हिंदी अनुवाद:

हे अर्जुन! मेरी अध्यक्षता में प्रकृति इस चराचर जगत को उत्पन्न करती है। इस कारण से यह संसार चक्र चलता रहता है।

सरल व्याख्या:

भगवान ही इस सृष्टि के निर्देशक हैं। प्रकृति उन्हीं की आज्ञा से काम करती है, जिससे सम्पूर्ण जगत की गतिविधियाँ चलती हैं।

श्लोक 11

अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।

परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्॥

हिंदी अनुवाद:

मूढ़ लोग मेरी इस मानवी रूप को देखकर मेरी दिव्य सत्ता को नहीं समझते। वे नहीं जानते कि मैं समस्त प्राणियों का परम ईश्वर हूँ।

सरल व्याख्या:

जो लोग मुझे केवल एक सामान्य मानव समझते हैं, वे मेरे वास्तविक स्वरूप को नहीं पहचानते। वे यह नहीं समझते कि मैं ही समस्त जगत का स्वामी हूँ।

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श्लोक 12

मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः।

राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः॥

हिंदी अनुवाद:

जो मूर्ख हैं, उनकी आशाएँ, कर्म और ज्ञान व्यर्थ हो जाते हैं। वे राक्षसी और आसुरी प्रकृति को अपनाकर माया के मोह में फँसे रहते हैं।

सरल व्याख्या:

जो ईश्वर को नहीं मानते, वे गलत दिशा में कर्म करते हैं और उनका ज्ञान भ्रमित होता है। वे अहंकार और अज्ञान में डूबे होते हैं।

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श्लोक 13

महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः।

भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम्॥

हिंदी अनुवाद:

परन्तु हे पार्थ! महात्मा पुरुष दिव्य प्रकृति को धारण कर मुझे एकमात्र अविनाशी आदि तत्व जानकर अनन्य भाव से भजते हैं।

सरल व्याख्या:

सच्चे भक्त मेरी दिव्य सत्ता को पहचानते हैं और पूरे मन से मुझे ही भजते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि मैं ही सबका आदि और अविनाशी हूँ।

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श्लोक 14

सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः।

नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते॥

हिंदी अनुवाद:

वे सदा मेरा कीर्तन करते हैं, दृढ़ निश्चय के साथ प्रयास करते हैं, मुझे नमस्कार करते हैं और भक्ति से मेरी उपासना करते हैं।

सरल व्याख्या:

सच्चे भक्त हर समय भगवान का नाम लेते हैं, पूर्ण श्रद्धा से सेवा करते हैं और भक्ति में लीन रहते हैं।

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श्लोक 15

ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते।

एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम्॥

हिंदी अनुवाद:

कुछ अन्य भक्त ज्ञान रूप यज्ञ द्वारा मेरी उपासना करते हैं। वे मुझे एक रूप में, अनेक रूपों में या सर्वत्र व्याप्त विश्वरूप में पूजते हैं।

सरल व्याख्या:

कुछ भक्त मुझे निर्गुण ब्रह्म के रूप में पूजते हैं, कुछ सगुण रूप में और कुछ मुझे संपूर्ण सृष्टि में व्याप्त देखते हुए मेरी भक्ति करते हैं।

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श्लोक 16

अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाऽहमहमौषधम्।

मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहमुत्तम्॥

हिंदी अनुवाद:

मैं ही यज्ञ हूँ, मैं ही हवन हूँ, मैं ही औषधि हूँ, मैं ही मंत्र हूँ, मैं ही घी हूँ, मैं ही अग्नि और यज्ञ की आहुति भी हूँ।

सरल व्याख्या:

भगवान कहते हैं – यज्ञ में जो कुछ होता है, वह सब मैं ही हूँ। हर कार्य में मेरी ही उपस्थिति है।

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श्लोक 17

पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः।

वेद्यं पवित्रमोंकार ऋक्साम यजुरेव च॥

हिंदी अनुवाद:

मैं इस संसार का पिता, माता, धारणकर्ता और पितामह हूँ। मैं ही वेदों में ज्ञेय, पवित्र, ओंकार और ऋग्वेद, सामवेद व यजुर्वेद हूँ।

सरल व्याख्या:

भगवान कहते हैं – सृष्टि में जो कुछ है, उसकी जड़ मैं हूँ। मैं ही पालन करता हूँ, और वेदों में जो ज्ञान है, वह भी मैं ही हूँ।

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श्लोक 18

गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्।

प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्॥

हिंदी अनुवाद:

मैं ही सबका लक्ष्य हूँ, पालनकर्ता हूँ, प्रभु हूँ, साक्षी हूँ, वास स्थान हूँ, शरणदाता हूँ, सच्चा मित्र हूँ, उत्पत्ति और प्रलय का कारण हूँ, तथा अविनाशी बीज भी हूँ।

सरल व्याख्या:

भगवान का स्वरूप सर्वसमावेशी है – वे ही आरंभ हैं, वे ही अंत हैं, और जीवन में जो भी सहारा चाहिए, वह सब वे स्वयं हैं।

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श्लोक 19

तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च।

अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन॥

हिंदी अनुवाद:

हे अर्जुन! मैं ही सूर्य की गर्मी देता हूँ, मैं ही वर्षा को रोकता और भेजता हूँ। मैं अमृत भी हूँ और मृत्यु भी, मैं सत (सत्य) और असत (अस्थायी) भी हूँ।

सरल व्याख्या:

भगवान कहते हैं – मैं ही इस संसार की हर प्रक्रिया का कारण हूँ, चाहे वह जीवन हो या मृत्यु, गर्मी हो या वर्षा, सत्य हो या माया।

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श्लोक 20

त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापा यज्ञैः इष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते।

ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोकमश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान्॥

हिंदी अनुवाद:

वेदों के जानकार, सोम रस पीने वाले, पाप रहित होकर यज्ञों द्वारा मुझे पूजते हैं और स्वर्ग की प्राप्ति की कामना करते हैं। वे स्वर्ग में जाकर देवताओं के समान दिव्य सुख भोगते हैं।

सरल व्याख्या:

जो लोग वेदों के अनुसार यज्ञ आदि करते हैं, वे स्वर्ग पाने की इच्छा रखते हैं। वहाँ वे दिव्य सुख भोगते हैं, पर यह सुख भी अस्थायी होता है।

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श्लोक 21

ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं

क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति।

एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना

गतागतं कामकामा लभन्ते॥

हिंदी अनुवाद:

वे स्वर्ग में विशाल सुख भोगने के बाद जब उनका पुण्य समाप्त हो जाता है, तो पुनः मर्त्यलोक में आ जाते हैं। इस प्रकार वे वेदों के तीनों विभागों का पालन करके कामनाओं की प्राप्ति हेतु आवागमन में फँसे रहते हैं।

सरल व्याख्या:

जो लोग केवल स्वर्ग की कामना करते हैं, वे वहाँ जाकर सुख भोगते हैं, लेकिन पुण्य समाप्त होते ही वापस धरती पर लौट आते हैं। इस तरह वे जन्म-मरण के चक्र में पड़े रहते हैं।

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श्लोक 22

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।

तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥

हिंदी अनुवाद:

जो भक्त अनन्य भाव से मेरी उपासना करते हैं और निरंतर मुझे ही स्मरण करते हैं, उनके योग (जो नहीं है उसकी पूर्ति) और क्षेम (जो है उसकी रक्षा) का मैं स्वयं वहन करता हूँ।

सरल व्याख्या:

भगवान कहते हैं – जो मुझे सच्चे मन से याद करते हैं, मैं उनकी हर ज़रूरत पूरी करता हूँ और जो कुछ उनके पास है, उसकी रक्षा भी करता हूँ।

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श्लोक 23

येऽप्यन्यदेवताभक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः।

तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्॥

हिंदी अनुवाद:

हे कौन्तेय! जो अन्य देवताओं की श्रद्धापूर्वक पूजा करते हैं, वे भी मेरी ही पूजा करते हैं, परन्तु वह पूजा विधिवत नहीं होती।

सरल व्याख्या:

भगवान कहते हैं – जो लोग दूसरे देवताओं की भी भक्ति करते हैं, वे भी अन्ततः मेरी ही पूजा करते हैं, परंतु वह सही रूप से नहीं होती क्योंकि वे मेरे असली स्वरूप को नहीं जानते।

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श्लोक 24

अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च।

न तु मामभिजानन्ति तत्वेनातश्च्यवन्ति ते॥

हिंदी अनुवाद:

मैं ही सभी यज्ञों का भोक्ता और स्वामी हूँ, परन्तु वे मुझे तत्व रूप से नहीं जानते इसलिए वे पतित हो जाते हैं।

सरल व्याख्या:

भगवान कहते हैं – सभी प्रकार की पूजा और यज्ञ अंततः मुझ तक ही पहुँचते हैं, लेकिन जो मुझे न पहचानकर दूसरों को भजते हैं, वे भ्रम में पड़ जाते हैं।

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श्लोक 25

यान्ति देवव्रता देवान्पितॄन्यान्ति पितृव्रताः।

भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्॥

हिंदी अनुवाद:

देवताओं की पूजा करने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं, पितरों की पूजा करने वाले पितृलोक को, भूतों की पूजा करने वाले भूतलोक को, और मेरी पूजा करने वाले मुझे प्राप्त होते हैं।

सरल व्याख्या:

भगवान यहाँ स्पष्ट कहते हैं – जिसकी जैसी भक्ति, वह वैसा फल पाता है। पर जो मुझे भजते हैं, वे मुझे ही प्राप्त होते हैं – जो सबसे श्रेष्ठ है।

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श्लोक 26

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।

तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः॥

हिंदी अनुवाद:

जो भक्त मुझे प्रेम से पत्र (पत्ता), पुष्प (फूल), फल या जल अर्पित करता है, मैं उसे प्रेमपूर्वक स्वीकार करता हूँ।

सरल व्याख्या:

भगवान को किसी भोग या धन की आवश्यकता नहीं है, उन्हें केवल प्रेम चाहिए। यदि कोई सच्चे मन से जल या फूल भी चढ़ाता है, तो वे उसे स्वीकार करते हैं।

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श्लोक 27

यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।

यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्॥

हिंदी अनुवाद:

हे अर्जुन! जो भी तुम करते हो, खाते हो, यज्ञ करते हो, दान करते हो और जो तप करते हो – वह सब मुझे अर्पण करो।

सरल व्याख्या:

भगवान कहते हैं – अपने जीवन के हर कार्य को मुझे समर्पित करो। इससे कर्मबंधन नहीं होगा और जीवन सफल होगा।

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श्लोक 28

शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः।

संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि॥

हिंदी अनुवाद:

ऐसा करने से तुम शुभ और अशुभ कर्मों के फलों के बंधन से मुक्त हो जाओगे। जब मन संयमित होगा, तो तुम मुझे प्राप्त कर लोगे।

सरल व्याख्या:

भगवान कहते हैं – जो व्यक्ति सभी कर्म मुझे अर्पण करता है, वह अच्छे-बुरे फल से बंधता नहीं। वह मुझे प्राप्त करता है – मोक्ष को पाता है।

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श्लोक 29

समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः।

ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्॥

हिंदी अनुवाद:

मैं सभी प्राणियों में समान हूँ – न कोई मेरा शत्रु है, न कोई प्रिय। लेकिन जो मेरी भक्ति करते हैं, मैं उनके साथ विशेष रूप से जुड़ जाता हूँ।

सरल व्याख्या:

ईश्वर सबको एक समान मानते हैं, लेकिन भक्त से विशेष प्रेम करते हैं। क्योंकि भक्त उन्हें प्रेम से पुकारता है।

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श्लोक 30

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।

साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः॥

हिंदी अनुवाद:

यदि कोई अत्यन्त पापी भी मुझे अनन्य भाव से भजता है, तो वह भी साधु माना जाता है, क्योंकि उसका निश्चय उत्तम होता है।

सरल व्याख्या:

ईश्वर कहते हैं – अगर कोई पापी भी पूरी निष्ठा से मेरी शरण में आता है, तो वह सुधार की राह पर है और वह भी मुझे प्यारा है।

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श्लोक 31

क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।

कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति॥

हिंदी अनुवाद:

वह (भक्त) शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और शाश्वत शांति को प्राप्त करता है। हे अर्जुन! यह मेरी प्रतिज्ञा है कि मेरा भक्त कभी नाश को प्राप्त नहीं होता।

सरल व्याख्या:

भगवान कहते हैं – सच्चे मन से भक्ति करने वाला चाहे कैसा भी क्यों न हो, वह जल्दी ही सुधार कर पुण्यात्मा बन जाता है। मेरा भक्त कभी भी बर्बाद नहीं होता।

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श्लोक 32

मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्यु: पापयोनय:।

स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्॥

हिंदी अनुवाद:

हे पार्थ! जो पाप योनि में उत्पन्न हुए हैं – स्त्रियाँ, वैश्य और शूद्र – वे भी यदि मेरी शरण में आते हैं, तो परम गति को प्राप्त करते हैं।

सरल व्याख्या:

भगवान कहते हैं – कोई भी व्यक्ति, चाहे वह किसी भी जाति या अवस्था का हो, यदि मेरी भक्ति करता है तो उसे मोक्ष (परम स्थिति) अवश्य प्राप्त होती है।

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श्लोक 33

किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा।

अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम्॥

हिंदी अनुवाद:

तो फिर पुण्यात्मा ब्राह्मणों और भक्त राजर्षियों को तो निश्चित रूप से मेरी प्राप्ति होगी। अतः इस अनित्य और दुखों से भरे संसार को पाकर मेरी भक्ति करो।

सरल व्याख्या:

जब सामान्य व्यक्ति भी मेरी भक्ति करके मुझे प्राप्त कर सकता है, तो पुण्यात्मा ज्ञानी और भक्तजन तो निश्चित ही पाएँगे। इसलिए इस दुखमय संसार में रहते हुए, तुम मेरी भक्ति में लग जाओ।

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श्लोक 34

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।

मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे॥

हिंदी अनुवाद:

मेरा मनन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे प्रणाम करो। तुम मुझे ही प्राप्त करोगे – यह मैं तुम्हें सत्य वचन देता हूँ, क्योंकि तुम मुझे प्रिय हो।

सरल व्याख्या:

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं – मेरा स्मरण करो, मुझसे प्रेम करो, मुझे नमस्कार करो – मैं तुम्हें अपने पास स्वीकार करूँगा। यह मेरा वादा है, क्योंकि तुम मुझे प्रिय हो।

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