भगवद्गीता अध्याय 6 – ध्यानयोग | आत्म-उन्नति का मार्ग

 भगवद्गीता अध्याय 6 – ध्यानयोग | आत्म-उन्नति का मार्ग

भगवद्गीता अध्याय 6 – ध्यानयोग | आत्म-उन्नति का मार्ग


श्रीमद्भगवद्गीता - अध्याय 6: ध्यान योग

(श्लोक 1-47)

भावार्थ, सरल व्याख्या सहित

परिचय:

भगवद्गीता का छठा अध्याय ‘ध्यानयोग’ आत्म-नियंत्रण और साधना की विधियों को समझाता है।

श्रीकृष्ण अर्जुन को योगी के लक्षण, ध्यान की स्थिति और जीवन में योग की भूमिका बताते हैं।

यह अध्याय बताता है कि किस प्रकार से मन को नियंत्रित कर ध्यान के माध्यम से परमात्मा को पाया जा सकता है।

ध्यानयोग ही आत्म-शुद्धि और मोक्ष की ओर ले जाने वाला वास्तविक मार्ग है।

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श्लोक 1

अनुष्ठानं कर्म फलं त्यक्त्वा स शान्तिमधिगच्छति।

न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति॥

हिंदी अनुवाद:

जो बिना फल की इच्छा के कर्म करता है, वही सच्चा संन्यासी और योगी है; केवल अग्नि त्याग देने या क्रियाओं का परित्याग कर देने से योग सिद्ध नहीं होता।

सरल व्याख्या:

भगवान कहते हैं कि सच्चा योगी वही है जो निष्काम भाव से कर्म करता है, न कि वह जो केवल कर्मों का त्याग करता है। कर्म करना छोड़ना योग नहीं है, बल्कि फल की अपेक्षा छोड़ना ही योग है।

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श्लोक 2

यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव।

न ह्यसंन्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्चन॥

हिंदी अनुवाद:

हे पाण्डव! जिसे संन्यास कहा गया है, वही वास्तव में योग है। जो इच्छाओं और संकल्पों का त्याग नहीं करता, वह योगी नहीं हो सकता।

सरल व्याख्या:

सच्चा योग संकल्पों और इच्छाओं का त्याग है। केवल बाहर से संन्यासी दिखना पर्याप्त नहीं, अंदर से भी आसक्ति छोड़नी होगी।

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श्लोक 3

आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते।

योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते॥

हिंदी अनुवाद:

जो योग की ओर बढ़ रहा है उसके लिए कर्म आवश्यक है; और जब योग सिद्ध हो जाता है, तब उसके लिए शांति और त्याग ही साधन बनते हैं।

सरल व्याख्या:

योग के प्रारंभिक चरण में कर्म जरूरी है, लेकिन जब योग सिद्ध हो जाए तो फिर त्याग और आत्मसंयम ही प्रमुख होते हैं।

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श्लोक 4

यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते।

सर्वसङ्कल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते॥

हिंदी अनुवाद:

जब मनुष्य न तो इंद्रियों के विषयों में और न ही कर्मों में आसक्त रहता है, और जब वह संकल्पों का त्याग कर देता है, तब उसे योग में स्थित कहा जाता है।

सरल व्याख्या:

जिसका मन बाहरी विषयों और कर्मों में नहीं उलझा हो, वह ही योग की ऊँचाई पर पहुँचा हुआ माना जाता है।

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श्लोक 5

उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।

आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः॥

हिंदी अनुवाद:

मनुष्य को स्वयं अपने द्वारा अपना उद्धार करना चाहिए, अपने को नीचा नहीं गिराना चाहिए। क्योंकि स्वयं ही अपना मित्र है और स्वयं ही अपना शत्रु।

सरल व्याख्या:

हमें खुद को ऊँचा उठाने की कोशिश करनी चाहिए। यदि हम अपने मन को नियंत्रित रखें, तो वह हमारा मित्र बनता है, वरना वही हमारा शत्रु बन जाता है।

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श्लोक 6

बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः।

अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्॥

हिंदी अनुवाद:

जिसने अपने मन को जीत लिया है, उसके लिए वह मन मित्र के समान है; लेकिन जिसने मन को वश में नहीं किया, उसके लिए वह शत्रु के समान है।

सरल व्याख्या:

अगर हम अपने मन को संयम में रखते हैं, तो वह हमें सही दिशा में ले जाता है। लेकिन अगर मन ही नियंत्रण से बाहर हो, तो वही हमें गलत रास्ते पर ले जाता है।

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श्लोक 7

जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः।

शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः॥

हिंदी अनुवाद:

जिसने अपने मन को जीत लिया है और जो शांत है, उसके लिए परमात्मा सदा विद्यमान रहता है; वह सुख-दुःख, मान-अपमान, सर्दी-गर्मी में सम रहता है।

सरल व्याख्या:

मन को जीत लेने वाला व्यक्ति हर परिस्थिति में शांत और संतुलित रहता है, और परमात्मा उसमें सदा बसे रहते हैं।

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श्लोक 8

ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः।

युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनः॥

हिंदी अनुवाद:

जो योगी ज्ञान और अनुभव से संतुष्ट है, जिसने इंद्रियों को वश में कर लिया है, और जिसके लिए मिट्टी, पत्थर और सोना समान हैं – वह स्थिरबुद्धि योगी कहलाता है।

सरल व्याख्या:

सच्चा योगी वही है जो ज्ञान में संतुष्ट रहता है, इंद्रियों को जीत चुका है और उसे धन-संपत्ति में कोई अंतर नहीं लगता।

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श्लोक 9

सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु।

साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते॥

हिंदी अनुवाद:

जो योगी मित्र, शत्रु, शुभचिंतक, उदासीन, द्वेषी, संबंधी, संत और पापी – सभी को समान दृष्टि से देखता है, वही श्रेष्ठ माना जाता है।

सरल व्याख्या:

जिसके लिए सभी मनुष्य समान हैं, चाहे वे कैसा भी व्यवहार करें, वही योग में स्थित श्रेष्ठ व्यक्ति है।

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श्लोक 10

योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः।

एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः॥

हिंदी अनुवाद:

योगी को एकांत में रहकर, आत्म-संयमित, आशारहित और संग्रह से रहित होकर निरंतर अपने चित्त को योग में लगाना चाहिए।

सरल व्याख्या:

सच्चे योगी को एकांत में शांत चित्त से ध्यान करना चाहिए। उसमें कोई लालसा या भौतिक संग्रह की भावना नहीं होनी चाहिए।

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श्लोक 11

शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः।

नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम्॥

हिंदी अनुवाद:

योगी को स्वच्छ स्थान में न अधिक ऊँचा और न बहुत नीचा आसन बिछाकर बैठना चाहिए, जो कुश, मृगचर्म और कपड़े से बना हो।

सरल व्याख्या:

ध्यान के लिए शुद्ध, शांत और स्थिर जगह पर उचित ऊँचाई वाला आसन बिछाकर बैठना चाहिए। यह ध्यान की तैयारी का पहला चरण है।

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श्लोक 12

तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः।

उपवश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये॥

हिंदी अनुवाद:

वहाँ मन को एकाग्र करके, इंद्रियों और चित्त को संयमित करके, योगी को आत्मशुद्धि के लिए ध्यान में लगना चाहिए।

सरल व्याख्या:

एकांत में बैठकर योगी को अपने मन और इंद्रियों को वश में रखकर ध्यान करना चाहिए ताकि आत्मा की शुद्धि हो सके।

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श्लोक 13

समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः।

संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्॥

हिंदी अनुवाद:

योगी को शरीर, सिर और गर्दन को सीधा एवं स्थिर रखकर, अपनी दृष्टि को नासिका के अग्रभाग पर स्थिर करना चाहिए, और इधर-उधर नहीं देखना चाहिए।

सरल व्याख्या:

ध्यान में बैठते समय शरीर की स्थिति सीधी और स्थिर होनी चाहिए। ध्यान की दृष्टि को केवल अपनी नाक के सिरे पर केंद्रित रखना चाहिए।

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श्लोक 14

प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः।

मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः॥

हिंदी अनुवाद:

जिसका मन शांत हो, जो निर्भय हो, ब्रह्मचर्य का पालन करता हो, वह मेरे परायण होकर, चित्त को मुझमें स्थिर करके ध्यान करे।

सरल व्याख्या:

ध्यान करते समय योगी को डर और विकारों से रहित रहना चाहिए। मन को ईश्वर (श्रीकृष्ण) में लगाकर, पूर्ण समर्पण के साथ ध्यान करना चाहिए।

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श्लोक 15

युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः।

शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति॥

हिंदी अनुवाद:

इस प्रकार मन को संयमित करके ध्यान करने वाला योगी परम शांति को प्राप्त करता है, जो कि मुझे प्राप्त होने वाली निर्वाण की परम स्थिति है।

सरल व्याख्या:

जो योगी मन को नियमित रूप से साधता है और ईश्वर में लीन रहता है, वह मोक्ष रूपी परम शांति को प्राप्त करता है।

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श्लोक 16

नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः।

न चातिस्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन॥

हिंदी अनुवाद:

हे अर्जुन! जो न तो अधिक खाता है और न ही बिल्कुल उपवास करता है, न अधिक सोता है और न ही हमेशा जागता है – वही योग में स्थिर हो सकता है।

सरल व्याख्या:

योग के लिए संतुलन आवश्यक है – खान-पान, नींद और दिनचर्या में संयम रखने वाला व्यक्ति ही ध्यान में सफलता पा सकता है।

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श्लोक 17

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।

युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा॥

हिंदी अनुवाद:

जिसका आहार, विहार, क्रियाएं, नींद और जागना सब संयमित है, वह योगी दुखों का नाश करता है।

सरल व्याख्या:

योग से दुखों की समाप्ति तभी संभव है जब जीवन का हर पहलु – खाना, चलना, सोना और काम करना – संतुलित हो।

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श्लोक 18

यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते।

नि:स्पृह: सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा॥

हिंदी अनुवाद:

जब योगी का संयमित मन केवल आत्मा में ही स्थित हो जाए और वह सब कामनाओं से रहित हो जाए, तब वह योग में स्थित कहा जाता है।

सरल व्याख्या:

योगी वही कहलाता है जो सभी इच्छाओं से मुक्त होकर, अपने मन को आत्मा (या परमात्मा) में स्थिर कर देता है।

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श्लोक 19

यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता।

योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः॥

हिंदी अनुवाद:

जैसे बिना हवा के स्थान में दीपक की लौ नहीं डगमगाती, वैसे ही योगी का मन जब स्थिर हो जाता है, तो वह ध्यान में स्थित हो जाता है।

सरल व्याख्या:

जिस तरह स्थिर स्थान में दीपक शांत जलता है, वैसे ही योगी का मन जब एकाग्र हो जाता है, तब वह सच्चे ध्यान में होता है।

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श्लोक 20

यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया।

यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति॥

हिंदी अनुवाद:

जहाँ योगाभ्यास के द्वारा मन शांत हो जाता है, और जहाँ आत्मा में ही आत्मा को देखकर योगी संतुष्ट हो जाता है – वही योग की स्थिति है।

सरल व्याख्या:

जब मन पूरी तरह शांत हो जाए और आत्मा में ही आत्मा का अनुभव हो, तब योगी पूर्ण आनंद और संतोष को प्राप्त करता है।

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श्लोक 21

सुखमात्यन्तिकं यत्तद्बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्।

वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः॥

हिंदी अनुवाद:

जिस अवस्था में योगी उस परम सुख को अनुभव करता है जो इंद्रियों से परे और केवल बुद्धि से ग्रहण करने योग्य है, और जिसमें स्थित होकर वह कभी विचलित नहीं होता।

सरल व्याख्या:

ध्यान की गहराई में योगी को जो आनंद मिलता है, वह इंद्रियों से नहीं बल्कि आत्मा से आता है। उस अवस्था में योगी स्थिर हो जाता है और फिर डगमगाता नहीं।

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श्लोक 22

यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।

यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते॥

हिंदी अनुवाद:

जिसे प्राप्त करके योगी को कोई और लाभ बड़ा नहीं लगता, और जिसमें स्थित होकर वह सबसे बड़े दुख से भी विचलित नहीं होता।

सरल व्याख्या:

जब कोई योगी उस आत्मिक सुख को पा लेता है, तो उसे फिर दुनिया की कोई वस्तु ज़्यादा मूल्यवान नहीं लगती, और वो बड़े से बड़े संकट में भी डगमगाता नहीं।

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श्लोक 23

तं विद्यात् दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्।

स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा॥

हिंदी अनुवाद:

जिसे दुःखों के संयोग से सदा के लिए अलग होना कहा गया है, वह योग है। उसे निश्चयपूर्वक, बिना मन के थके, अभ्यास करना चाहिए।

सरल व्याख्या:

सच्चा योग वही है जो इंसान को दुःखों से मुक्ति दिलाए। इसलिए हर व्यक्ति को मन से थके बिना दृढ़ता से इसका अभ्यास करना चाहिए।

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श्लोक 24

सङ्कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः।

मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः॥

हिंदी अनुवाद:

सभी कामनाओं को, जो संकल्पों से उत्पन्न होती हैं, पूर्णतः त्याग कर, और मन के द्वारा इंद्रियों को सब ओर से नियंत्रित कर, योग का अभ्यास करें।

सरल व्याख्या:

ध्यान में सफलता के लिए ज़रूरी है कि व्यक्ति सभी इच्छाओं का त्याग करे और अपनी इंद्रियों को मन से नियंत्रित रखे।

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श्लोक 25

शनैः शनैरुपरमेद् बुद्ध्या धृतिगृहीतया।

आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्॥

हिंदी अनुवाद:

धीरे-धीरे, धैर्ययुक्त बुद्धि से मन को वश में लाकर आत्मा में स्थित करना चाहिए और फिर कुछ भी नहीं सोचना चाहिए।

सरल व्याख्या:

ध्यान धीरे-धीरे साधा जाता है। धैर्य और समझदारी से मन को आत्मा में टिकाना होता है और फिर विचारों से ऊपर उठना होता है।

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श्लोक 26

यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्।

ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्॥

हिंदी अनुवाद:

जहाँ-जहाँ चंचल और अस्थिर मन भटकता है, वहाँ-वहाँ से उसे वापस लाकर आत्मा में ही लगाना चाहिए।

सरल व्याख्या:

मन बार-बार भटकेगा, लेकिन हर बार उसे पकड़कर वापस आत्मा (या ध्यान) में लगाना ही योग का अभ्यास है।

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श्लोक 27

प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम्।

उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम्॥

हिंदी अनुवाद:

जिसका मन शांत हो गया है, जिसकी वासनाएं शांत हो गई हैं, और जो पापरहित ब्रह्मस्वरूप हो गया है – ऐसा योगी उत्तम सुख को प्राप्त करता है।

सरल व्याख्या:

जब योगी का मन शांत हो जाता है और वह वासनाओं से मुक्त हो जाता है, तब वह आत्मिक आनंद को प्राप्त करता है।

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श्लोक 28

युञ्जन्नेवं सदा आत्मानं योगी विगतकल्मषः।

सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते॥

हिंदी अनुवाद:

इस प्रकार आत्मा को साधते हुए, पापरहित योगी ब्रह्म से मिलन रूपी परम सुख को सहजता से प्राप्त करता है।

सरल व्याख्या:

नियमित साधना से योगी पापों से मुक्त होकर उस परम सुख को प्राप्त करता है, जो केवल ईश्वर (ब्रह्म) के संपर्क से संभव है।

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श्लोक 29

सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।

ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः॥

हिंदी अनुवाद:

योगयुक्त आत्मा वाला व्यक्ति सभी जीवों में आत्मा को और आत्मा में सभी जीवों को देखता है। वह समदर्शी होता है।

सरल व्याख्या:

जिसने ध्यान के माध्यम से योग साध लिया, वह हर जीव में ईश्वर और ईश्वर में हर जीव को देखने लगता है। वह सभी को समान समझता है।

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श्लोक 30

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।

तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥

हिंदी अनुवाद:

जो मुझे सब जगह देखता है और सब कुछ मुझमें देखता है, उसके लिए मैं कभी खोता नहीं और वह मेरे लिए कभी नहीं खोता।

सरल व्याख्या:

जो व्यक्ति ईश्वर को हर जगह देखता है, वह हमेशा ईश्वर से जुड़ा रहता है। न वह ईश्वर से अलग होता है, न ईश्वर उससे।

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श्लोक 31

सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः।

सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते॥

हिंदी अनुवाद:

जो योगी मुझे सभी प्राणियों में स्थित जानकर एकता की भावना से मेरी भक्ति करता है, वह चाहे जैसा जीवन जी रहा हो, वह मुझमें ही रहता है।

सरल व्याख्या:

सच्चा योगी वही है जो हर जीव में भगवान को देखता है और भक्ति में जुड़ा रहता है। वह हर परिस्थिति में भगवान से जुड़ा होता है।

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श्लोक 32

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।

सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः॥

हिंदी अनुवाद:

हे अर्जुन! जो योगी सब जगह अपने समान ही सबको देखता है – चाहे सुख में हों या दुख में – वह परम योगी कहलाता है।

सरल व्याख्या:

जिसे सबमें अपनी ही झलक दिखे और वह सबके दुख-सुख को समझे, वही सबसे श्रेष्ठ योगी होता है।

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श्लोक 33

अर्जुन उवाच –

योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन।

एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम्॥

हिंदी अनुवाद:

अर्जुन बोले – हे मधुसूदन! आपने जो समता वाले योग का वर्णन किया है, उसमें स्थिरता मुझे संभव नहीं लगती क्योंकि मन चंचल है।

सरल व्याख्या:

अर्जुन कहता है कि भगवान ने जो ध्यान का मार्ग बताया है, वह मन की चंचलता के कारण उसे कठिन लगता है।

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श्लोक 34

चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्॥

हिंदी अनुवाद:

हे कृष्ण! मन चंचल, बलवान और हठी है। मैं इसे वश में करना वायु को रोकने जितना कठिन मानता हूँ।

सरल व्याख्या:

अर्जुन कहता है कि मन को नियंत्रण में लाना बहुत मुश्किल है, जैसे हवा को मुट्ठी में पकड़ना।

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श्लोक 35

श्रीभगवानुवाच –

असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।

अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥

हिंदी अनुवाद:

भगवान बोले – हे महाबाहो! निःसंदेह मन चंचल और कठिन है, लेकिन अभ्यास और वैराग्य से उसे वश में किया जा सकता है।

सरल व्याख्या:

भगवान कहते हैं कि मन को नियंत्रित करना कठिन है, पर लगातार अभ्यास और इच्छाओं से दूर रहकर उसे साधा जा सकता है।

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श्लोक 36

असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः।

वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः॥

हिंदी अनुवाद:

जिसका मन वश में नहीं है, उसके लिए योग पाना कठिन है; लेकिन जो मन को वश में करता है और प्रयास करता है, वह योग को प्राप्त कर सकता है।

सरल व्याख्या:

बिना मन के नियंत्रण के, ध्यान सफल नहीं होता। लेकिन जिसने मन को जीत लिया, वह योग में सफल होता है।

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श्लोक 37

अर्जुन उवाच –

अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः।

अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति॥

हिंदी अनुवाद:

अर्जुन बोले – हे कृष्ण! जो श्रद्धा तो रखता है, पर संयम नहीं रख पाता और योग में स्थिर नहीं हो पाता, उसका क्या होता है?

सरल व्याख्या:

अर्जुन प्रश्न करता है – जो योगी बीच रास्ते में ही रुक जाए, न पूरी भक्ति कर सके, न सांसारिक सुख पा सके – उसकी क्या गति होती है?

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श्लोक 38

कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति।

अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि॥

हिंदी अनुवाद:

हे महाबाहो! क्या वह दोनों (संसार और आत्मकल्याण) से च्युत होकर टूटे हुए बादल की तरह नष्ट हो जाता है?

सरल व्याख्या:

अर्जुन पूछता है – क्या वह साधक जो न इधर का रहा न उधर का, बादल की तरह बिखर कर नष्ट हो जाता है?

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श्लोक 39

एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः।

त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते॥

हिंदी अनुवाद:

हे कृष्ण! कृपया मेरे इस संशय को पूर्ण रूप से दूर करें। आपके सिवा कोई इसका समाधान करने में सक्षम नहीं है।

सरल व्याख्या:

अर्जुन भगवान से कहता है कि इस संशय को सिर्फ आप ही दूर कर सकते हैं। आपकी बात ही अंतिम सत्य है।

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श्लोक 40

श्रीभगवानुवाच –

पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते।

न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति॥

हिंदी अनुवाद:

भगवान बोले – हे पार्थ! उस साधक का न तो इस लोक में और न परलोक में विनाश होता है। जो शुभ कर्म करता है, वह कभी बुरा परिणाम नहीं पाता।

सरल व्याख्या:

भगवान आश्वासन देते हैं – जो साधना करता है, भले पूरी न कर सके, उसका कभी विनाश नहीं होता। शुभ प्रयास व्यर्थ नहीं जाता।

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श्लोक 41

प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः।

शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते॥

हिंदी अनुवाद:

योगभ्रष्ट व्यक्ति पुण्यलोकों में जाकर कई वर्षों तक सुख भोगकर, फिर पवित्र और धनवान परिवार में जन्म लेता है।

सरल व्याख्या:

जो साधक बीच में रुक जाए, वह अगले जन्म में अच्छे घर में जन्म पाता है ताकि फिर से साधना कर सके।

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श्लोक 42

अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम्।

एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम्॥

हिंदी अनुवाद:

या फिर वह बुद्धिमान योगियों के परिवार में जन्म लेता है। ऐसा जन्म इस संसार में अत्यंत दुर्लभ होता है।

सरल व्याख्या:

वह कभी-कभी सीधे किसी योगी के घर जन्म लेता है, जिससे उसका पिछला अभ्यास फिर से जाग जाए। यह जन्म बहुत भाग्य से मिलता है।

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श्लोक 43

तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्।

यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन॥

हिंदी अनुवाद:

वहाँ वह अपनी पूर्व जन्म की बुद्धि को फिर से प्राप्त करता है और उससे प्रेरित होकर साधना में फिर लग जाता है।

सरल व्याख्या:

पूर्व जन्म का अभ्यास फिर से प्रकट होता है और वह साधक आगे की साधना में जुट जाता है।

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श्लोक 44

पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः।

जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते॥

हिंदी अनुवाद:

पूर्व अभ्यास के प्रभाव से वह व्यक्ति, चाहे अनजाने में ही क्यों न हो, ध्यान की ओर खिंचता है और वेदों के कर्मकांडों से ऊपर उठ जाता है।

सरल व्याख्या:

पिछले जन्म का अभ्यास उसे मजबूर करता है ध्यान की ओर खिंचने के लिए। वह सांसारिक विधियों से आगे निकल जाता है।

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श्लोक 45

प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः।

अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम्॥

हिंदी अनुवाद:

कई जन्मों की साधना द्वारा पापों से शुद्ध होकर वह योगी अंततः परम गति को प्राप्त करता है।

सरल व्याख्या:

लगातार जन्म-जन्म की साधना के बाद योगी मोक्ष को प्राप्त करता है।

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श्लोक 46

तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः।

कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन॥

हिंदी अनुवाद:

योगी तपस्वियों से श्रेष्ठ है, ज्ञानी जनों से भी श्रेष्ठ है, और कर्मयोगियों से भी श्रेष्ठ है। इसलिए, हे अर्जुन! तू योगी बन।

सरल व्याख्या:

भगवान स्पष्ट कहते हैं कि योगी सबसे श्रेष्ठ है – जो साधना करता है, वह तपस्वियों, विद्वानों और कर्मियों से भी ऊपर है।

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श्लोक 47

योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना।

श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः॥

हिंदी अनुवाद:

सभी योगियों में से, जो पूर्ण श्रद्धा के साथ मेरी भक्ति करता है, वह मुझसे सर्वाधिक जुड़ा हुआ और श्रेष्ठ योगी है।

सरल व्याख्या:

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं – सबसे उत्तम योगी वही है जो ईश्वर से सच्चे मन से जुड़कर भक्ति करता है।

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