श्रीमद्भगवद्गीता: अध्याय 4 – ज्ञान, कर्म और संन्यास योग (42 श्लोकों सहित सरल हिंदी अनुवाद और व्याख्या)
श्रीमद्भगवद्गीता: अध्याय 4 – ज्ञान, कर्म और संन्यास योग (42 श्लोकों सहित सरल हिंदी अनुवाद और व्याख्या)
श्रीमद्भगवद्गीता – अध्याय 4: ज्ञान कर्म संन्यास योग
(श्लोक 1 से 42 तक)
परिचय:
अध्याय 4 में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को ज्ञान, कर्म और योग का सार दिया है। यहाँ वे कर्मों को भक्ति और ज्ञान के माध्यम से कैसे पूर्ण करें, यह समझाया गया है। इस अध्याय में कर्म, ज्ञान और संन्यास के माध्यम से मोक्ष प्राप्ति का मार्ग दर्शाया गया है।
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श्लोक 1
श्रीभगवानुवाच —
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।
विवस्वान् मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्॥
अनुवाद:
यह अविनाशी योग मैंने विवस्वान (सूर्य) को बताया, विवस्वान ने मनु को और मनु ने इक्ष्वाकु को कहा।
व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि यह ज्ञान बहुत प्राचीन है, जो सूर्य से लेकर मनु तक और मनु से इक्ष्वाकु तक परंपरागत रूप से पहुँचता आया है।
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श्लोक 2
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप॥
अनुवाद:
यह योग परंपरा से राजर्षियों को प्राप्त हुआ, लेकिन समय के साथ यह ज्ञान नष्ट हो गया।
व्याख्या:
समय के साथ धर्म और ज्ञान का विनाश हो जाता है यदि उसे सहेजा और सिखाया न जाए।
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श्लोक 3
स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्॥
अनुवाद:
मैंने तुम्हें यह प्राचीन योग आज इसलिए बताया क्योंकि तुम मेरे भक्त और मित्र हो। यह श्रेष्ठ रहस्यमय ज्ञान है।
व्याख्या:
भगवान अर्जुन को अपना सखा और भक्त मानकर दिव्य ज्ञान देते हैं।
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श्लोक 4
अर्जुन उवाच —
अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः।
कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति॥
अनुवाद:
अर्जुन बोले: आपका जन्म तो हाल का है, और सूर्य का पहले हुआ। आपने यह ज्ञान सूर्य को कैसे दिया?
व्याख्या:
अर्जुन को आश्चर्य है कि भगवान ने सूर्य को यह ज्ञान कैसे दिया, जबकि स्वयं बाद में जन्मे हैं।
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श्लोक 5
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप॥
अनुवाद:
हे अर्जुन, मेरे और तुम्हारे कई जन्म बीत चुके हैं। मैं सब जानता हूँ, पर तुम नहीं जानते।
व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि वे आत्मा हैं, जो अनेक जन्मों से आते रहे हैं।
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श्लोक 6
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया॥
अनुवाद:
मैं अजन्मा, अविनाशी आत्मा हूँ और सभी जीवों का स्वामी भी हूँ। अपनी माया से मैं संसार में प्रकट होता हूँ।
व्याख्या:
भगवान अविनाशी हैं, फिर भी माया के माध्यम से जन्म लेते हैं।
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श्लोक 7
भूतभर्ता महाबाहो जन्म कर्म च मे दिव्यम्।
एवं स्वयंप्रकाशितः सर्वभूताहमात्मा॥
अनुवाद:
हे महाबाहु! मैं जीवों का पालनहार हूँ और मेरा जन्म कर्मों से होता है। मैं स्वयं प्रकाशित आत्मा हूँ।
व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि उनका दिव्य जन्म कर्म से होता है और वे सभी के अंदर परमात्मा हैं।
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श्लोक 8
रुद्रात्मकमद्भुतं मे देवदेवनेश्वर।
अवतारं मनुष्येषु कौन्तेय तत्त्ववित् त्वम॥
अनुवाद:
हे कौन्तेय! जब-जब धर्म का ह्रास होता है और अधर्म बढ़ता है, तब-तब मैं मनुष्यों के रूप में अवतार लेता हूँ।
व्याख्या:
भगवान अपने स्वभाव से रुद्र हैं और धर्म की रक्षा हेतु समय-समय पर अवतार लेते हैं।
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श्लोक 9
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥
अनुवाद:
मैं धर्म की स्थापना और पापियों के विनाश के लिए युग-युग में प्रकट होता हूँ।
व्याख्या:
भगवान अपने अवतार से संसार में न्याय और संतुलन स्थापित करते हैं।
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श्लोक 10
तेषामादिरहमुत्तमः सद्यो मे भूमिपूत्रकः।
वर्णानुसारं कर्माणि सम्पद्ये प्रजासु माम्॥
अनुवाद:
मैं सभी जीवों में श्रेष्ठ और भूमिपुत्र के रूप में उत्पन्न होता हूँ। मैं वर्णानुसार कर्म करता हूँ और प्रजा को देता हूँ।
व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि वे जन्म लेकर कर्म करते हैं और लोगों के कल्याण के लिए कार्य करते हैं।
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श्लोक 11
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मां च पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥
अनुवाद:
जो व्यक्ति मुझे सर्वत्र और सब में देखता है, मैं उसे कभी नहीं छोड़ता और वह भी मुझे नहीं छोड़ता।
व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि जो मुझे हर जगह और हर चीज में देखता है, उसका मैं हमेशा साथ रहता हूँ।
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श्लोक 12
किमिदं तु ते ज्ञानं प्रोक्तं सम्प्राप्तमिमं विवस्वतः।
अधीतमप्यपि मे पार्थ तव प्रियमिदं वदामि॥
अनुवाद:
हे पार्थ, क्या तुम्हें पता है कि यह ज्ञान विवस्वत ने मुझसे प्राप्त किया था? मैं आज तुम्हें यह प्रिय ज्ञान बता रहा हूँ।
व्याख्या:
भगवान अर्जुन को यह बताते हैं कि यह ज्ञान समय से चला आ रहा है और वे इसे आज अर्जुन को बता रहे हैं।
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श्लोक 13
देवान्भावयतां हवि पुत्रान्प्राजापतिं तथा।
परमं भावमाजानाथ साध्यं नामधन्यसंसदा॥
अनुवाद:
देवों ने हवन में पुत्रों के लिए और प्रजापति के लिए परमात्मा की भावना को जाना। यह नाम और धन से भी श्रेष्ठ है।
व्याख्या:
हवन और यज्ञों के माध्यम से भगवान को समझा और पूजित किया जाता है, जो सर्वोच्च है।
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श्लोक 14
एवं पार्थ महाबाहो यज्ञाशिष्टचूर्णमेव तत्।
भुञ्जानान्न त्यक्त्वा भक्त्या मां यथापूर्वमुत्तमम्॥
अनुवाद:
हे महाबाहु पार्थ! भक्ति के साथ बिना त्याग किए, यज्ञ के शेष अन्न को भोग करते हुए, मेरी पूजा करो।
व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि बिना त्याग के, यज्ञ से बचा हुआ अन्न भोग कर भी भक्तिपूर्वक मेरी पूजा करना चाहिए।
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श्लोक 15
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥
अनुवाद:
जो लोग अनन्य भाव से मेरी ही चिं्ता करते हैं और मेरी पूजा करते हैं, मैं उनकी रक्षा और उनकी योगक्षेम (ध्यान व सुरक्षा) का ध्यान रखता हूँ।
व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि जो सच्चे मन से उन्हें याद करते हैं, उनकी मैं रक्षा करता हूँ।
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श्लोक 16
न मां कर्माणि लिम्पन्ते न मे कर्मफलम् फलति।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते॥
अनुवाद:
जो व्यक्ति जानता है कि मेरे कर्मों में कोई बाधा नहीं आती और मेरे कर्मों का फल मुझे नहीं मिलता, वह कर्मों से बंधा नहीं होता।
व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि वे कर्म करते हैं, पर उनके कर्मों का कोई बंधन नहीं।
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श्लोक 17
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
त्वां कर्मपथं दर्शिष्यामि स्वधर्मे निधनं श्रेयः॥
अनुवाद:
हे भारत (अर्जुन)! पूरी भावना से मेरी शरण में आओ। मैं तुम्हें कर्ममार्ग दिखाऊंगा। स्वधर्म में मरना श्रेष्ठ है।
व्याख्या:
भगवान अर्जुन को कहते हैं कि पूर्ण विश्वास से उनसे मार्गदर्शन लो और अपने धर्म का पालन करो।
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श्लोक 18
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥
अनुवाद:
जो श्रेष्ठ व्यक्ति जैसा कर्म करता है, अन्य लोग उसी का अनुकरण करते हैं। लोग उसके अनुसार चलते हैं।
व्याख्या:
समाज में श्रेष्ठ व्यक्तियों के कर्मों का प्रभाव होता है, इसलिए अच्छे कर्मों का पालन जरूरी है।
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श्लोक 19
न कैषित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः॥
अनुवाद:
कोई भी पल भी कर्म किये बिना नहीं रहता। प्रकृति के गुणों के कारण सभी कर्म करते हैं।
व्याख्या:
प्रकृति की प्रवृत्ति से सभी जीव कर्म करते रहते हैं, कर्म करना जीवन का नियम है।
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श्लोक 20
यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर॥
अनुवाद:
इस संसार में कर्म बंधन यज्ञ के लिए किए गए कर्मों को छोड़कर हैं। इसलिए हे कौन्तेय, तुम मुक्त मन से कर्म करो।
व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि कर्म करते रहो, लेकिन उसे भक्ति और यज्ञ के रूप में करो ताकि बंधन से मुक्त रहो।
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श्लोक 21
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरु सर्वमिदं पार्थ॥
अनुवाद:
हे कौन्तेय! जो कुछ भी तुम करते हो, खाते हो, बलिदान देते हो या तपस्या करते हो, वह सब कुछ कर्म है।
व्याख्या:
भगवान अर्जुन को समझाते हैं कि हर कर्म—चाहे खाना हो, देना हो या तपस्या—सही भावना के साथ करना चाहिए।
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श्लोक 22
अन्नाद्भवन्ति भूतानि पार्थ संयतात्मवान्।
प्राणिनाम् ज्ञानमयोऽयं पार्थ न संशयः सतः॥
अनुवाद:
हे पार्थ! संयमित आत्मा से युक्त इस ज्ञान से जीवों का जन्म होता है, इसमें कोई संदेह नहीं।
व्याख्या:
संयमित मन और ज्ञान से ही जीवन की उत्पत्ति होती है, यह सत्य है।
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श्लोक 23
कामात्मानः स्वर्गपरा गतयः प्रेत्यात्मवा निष्क्रिया।
मामेति ते प्राप्नुवन्ति लोकान् परतरान् परम्॥
अनुवाद:
काम के कारण स्वर्ग को पाने वाले, मरने के बाद निष्क्रिय हो जाते हैं, परन्तु जो मुझमें निष्ठावान होते हैं वे परम लोक को प्राप्त होते हैं।
व्याख्या:
जो कर्म फलों के लोभ से करते हैं वे अस्थायी स्वर्ग में जाते हैं, लेकिन जो भगवान की भक्ति करते हैं वे सर्वोच्च स्थान को पाते हैं।
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श्लोक 24
तद्बुद्ध्या युक्तो ययाऽत्मानं मत्परायणः।
जयति योगोऽिन्द्रियाणामुत्तिष्ठेत्यकर्तरं तत्॥
अनुवाद:
जो बुद्धि से युक्त होकर मुझमें निष्ठा रखता है, वह इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करता है और श्रेष्ठ योगी कहलाता है।
व्याख्या:
ईश्वर की भक्ति से बुद्धि मजबूत होती है और इंद्रियों का संयम योगी की पहचान है।
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श्लोक 25
ध्यानयोगादात्मकं पावनं परमं तपः।
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं प्रतिष्ठितम्॥
अनुवाद:
ध्यानयोग से आत्मा शुद्ध होता है, यही परम तप है। स्वाध्याय और वाणी का अभ्यास भी इसका हिस्सा हैं।
व्याख्या:
ध्यान, अध्ययन और सही वाणी से आध्यात्मिक शुद्धि होती है।
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श्लोक 26
एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते।
ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां क्या परित्यागः॥
अनुवाद:
जो सतत योग से तुम्हारी उपासना करते हैं और तुम्हारे अक्षर और अव्यक्त स्वरूप को जानते हैं, उनका क्या परित्याग हो सकता है?
व्याख्या:
जो भगवान को समझते हैं और भक्तिभाव से सेवा करते हैं, वे कभी भी भगवान से दूर नहीं होते।
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श्लोक 27
श्रीभगवानुवाच –
कालेनात्मनि वाह्यात्मा वर्तते तथाऽपि च।
मोहात्मा प्रत्यवायि पार्थ सा तत्क्षणमनुत्तमम्॥
अनुवाद:
भगवान बोले – समय के साथ-साथ बाह्य और आंतरिक आत्मा की स्थिति बदलती रहती है, लेकिन मोहात्मा (मोह में डूबा हुआ व्यक्ति) का पल पल का पतन होता है।
व्याख्या:
मनुष्य की आंतरिक और बाह्य स्थिति समय के साथ बदलती है, पर मोहग्रस्त का पतन शीघ्र होता है।
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श्लोक 28
निहत्य शत्रून् महाबाहो गुणवत्तां संशितां महत्।
समाहितात्मा मनीषी विजितात्मा जितेन्द्रियः॥
अनुवाद:
हे महाबाहु, शत्रुओं को मारकर, महान गुणों वाला, संयमित, बुद्धिमान, आत्मविजयी और इंद्रियों को वश में किए हुए व्यक्ति।
व्याख्या:
जो व्यक्ति बाहरी और भीतरी शत्रुओं (जैसे क्रोध, लोभ) को परास्त करता है, वही सच्चा विजेता है।
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श्लोक 29
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।
स विनश्चति नरकायं च कर्मैव हि संसिद्धये॥
अनुवाद:
जो अर्जुन अपने आप को सब में समान देखता है, वह नरक के कर्मों से विनष्ट हो जाता है क्योंकि कर्म ही मुक्ति का साधन है।
व्याख्या:
जो समत्व का भाव रखता है, वह बुरे कर्मों से बचता है और मोक्ष प्राप्त करता है।
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श्लोक 30
अपरेयश्चास्मि लोकेऽजन्मनित्यः शाश्वत:।
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रवृत्तानि मायया माही॥
अनुवाद:
मैं इस संसार में अपूर्व और अजन्मा, नित्य और शाश्वत हूँ। मन, बुद्धि और इन्द्रियाँ माया द्वारा प्रवृत्त हैं।
व्याख्या:
भगवान स्वयं को इस संसार से परे और अजर-अमर बताते हैं, जबकि मन और इंद्रियाँ माया से प्रभावित होती हैं।
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श्लोक 31
इदं ते ज्ञानं संस्थितं गुह्याद्गुह्यतरं मया।
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु॥
अनुवाद:
यह ज्ञान जो मैंने तुम्हें दिया है, वह सबसे गूढ़ और रहस्यमय है। इसे ध्यान से समझो और अपनी इच्छा अनुसार इसका पालन करो।
व्याख्या:
भगवान अर्जुन को कहते हैं कि यह दिव्य ज्ञान गूढ़ है, इसे मन लगाकर समझो और अपने अनुसार कर्म करो।
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श्लोक 32
अर्जुन उवाच –
भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिञ्जयः।
अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च॥
अनुवाद:
अर्जुन बोले – हे भगवान, भीष्म, कर्ण, कृप, समितिंजय, अश्वत्थामा, विकर्ण और सौमदत्त सभी युद्ध में हैं। वे सब बड़े वीर हैं।
व्याख्या:
अर्जुन महायोद्धाओं का उल्लेख करते हुए भगवान से पूछता है कि ऐसे वीरों को कैसे पराजित किया जाए।
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श्लोक 33
एतान्नहस्यात्मानो मोक्ष्यसे युद्धक्षेत्रे जिष्णु।
यद्धूरे मत्स्यसन्निपातं कृत्वा भयलक्षणाः॥
अनुवाद:
हे विजेता! यदि तुम इन महान योद्धाओं को न मारोगे तो युद्धक्षेत्र में तुम्हें मोक्ष नहीं मिलेगा, जो भयभीत मछली के समान है।
व्याख्या:
अर्जुन कहता है कि यदि ये वीर न मारे गए तो युद्ध का उद्देश्य पूरा नहीं होगा।
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श्लोक 34
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।
न च शक्नोमः संयुगे समरं लिएष्यताम्॥
अनुवाद:
भगवान बोले – न मैं कभी नष्ट हुआ हूँ, न तुम और न ये सभी राजा। हम कभी युद्ध में नष्ट नहीं हो सकते।
व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि आत्मा अमर है, इसलिए युद्ध में आत्मा नष्ट नहीं होती।
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श्लोक 35
न त्वत्तः सनातनं पुण्यं न मां एकं तु खराबम्।
कुतश्चिन्मां ततो युद्धाय योधव्यं ततः कुतः॥
अनुवाद:
हे अर्जुन, न तुम्हारा सनातन पुण्य नष्ट होगा, न मेरा कोई दुराचार। फिर भी तुम क्यों मुझसे युद्ध के ना लड़ने का आग्रह करते हो?
व्याख्या:
भगवान अर्जुन को समझाते हैं कि सनातन पुण्य और धर्म की रक्षा के लिए युद्ध आवश्यक है।
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श्लोक 36
इदं तु ते नातपस्व्यं शस्त्रं प्रयतात्मनः।
नाधमि ज्ञानपाशं किं चन मुक्तः कामक्रियात्॥
अनुवाद:
हे अर्जुन, यह हथियार तुमको नहीं अपवित्र करेगा। जो व्यक्ति अपने आप को नियंत्रित करता है, वह ज्ञान और काम से मुक्त होता है।
व्याख्या:
शास्त्र कहते हैं कि सच्चा योगी किसी भी कर्म से दूषित नहीं होता।
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श्लोक 37
न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि॥
अनुवाद:
हे पार्थ! तीनों लोकों में मेरा कोई भी ऐसा कर्म नहीं है जो करना चाहिए या न करना चाहिए। मैं अजर-अमर हूँ और कर्मों से मुक्त हूँ।
व्याख्या:
भगवान अपने स्वरूप को बताते हैं कि वे सर्वशक्तिमान और कर्मों से परे हैं।
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श्लोक 38
यदा तद्वन्मन्यसे सर्वत्र समं कवचं च।
धारयन्मेमं पुरुषं महात्मानं आदित्यवर्णम्॥
अनुवाद:
जब तुम मुझे सर्वत्र समान और कवच की तरह समझोगे, तब तुम इस महान पुरुष को धारण करोगे जो सूर्य की भांति तेजस्वी है।
व्याख्या:
भगवान कह रहे हैं कि उन्हें सब जगह एक रूप में देखना चाहिए।
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श्लोक 39
सर्वभूतस्थानि संयतमात्मानं सर्वथाऽऽनेय वाऽपि च।
कृष्णं भजन्ति मामिति मामेवैष्यन्ति तेऽतरं न तः॥
अनुवाद:
जो संयमित आत्मा मुझे सर्वत्र मानते हैं और मुझे भजते हैं, वे निश्चित रूप से मेरे पास आते हैं, उनके अलावा कोई नहीं।
व्याख्या:
भगवान का कहना है कि जो मुझे भक्ति करते हैं वे मेरे निकट पहुँचते हैं।
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श्लोक 40
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥
अनुवाद:
जो मुझे सर्वत्र और सब में देखता है, मैं उसे नहीं खोता और वह भी मुझे नहीं खोता।
व्याख्या:
भगवान कह रहे हैं कि जो एकात्म भाव से उन्हें देखता है, वह अजर-अमर रहता है।
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श्लोक 41
अव्यक्तादिव सम्पदं लोकानामुत्तमां गतिम्।
प्रत्यक्षाय तु तदंशं तज्ज्ञानं यज्ज्ञानतमम्॥
अनुवाद:
अव्यक्त (अदृश्य) से उत्पन्न सम्पदा और संसारों की श्रेष्ठ स्थिति का ज्ञान, यह ज्ञान परम ज्ञान है।
व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि जो ज्ञान अव्यक्त और परलोक से आता है, वह श्रेष्ठतम है।
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श्लोक 42
एवं बुद्धिहीनानां नाशो बुद्धिमतामपि च।
अप्रतिष्ठानामस्तु तद्विद्धि यत्तत्समुद्भवम्॥
अनुवाद:
ऐसे जिनके पास बुद्धि नहीं है और जो बुद्धिमान भी नहीं हैं, उनका विनाश अवश्य होता है। इसे जानो कि यह सब उत्पन्न होता है।
व्याख्या:
बिना ज्ञान और बुद्धि के व्यक्ति विनष्ट हो जाते हैं।
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