श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 3 | श्लोक 11-20 | कर्मयोग की शक्ति और सरल व्याख्या
श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 3 | श्लोक 11-20 | कर्मयोग की शक्ति और सरल व्याख्या
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श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 3 – कर्मयोग | श्लोक 11 से 20 तक हिंदी भावार्थ और सरल व्याख्या
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🟩 Introduction (परिचय):
श्रीमद्भगवद्गीता का तीसरा अध्याय "कर्मयोग" हमें यह सिखाता है कि जीवन में निष्काम कर्म कैसे किया जाए।
इन श्लोकों में श्रीकृष्ण यज्ञ की महिमा, समाज के सामूहिक उत्थान और स्वयं के मोक्ष के लिए कर्म करने की प्रेरणा देते हैं।
यह भाग विशेष रूप से उन लोगों के लिए उपयोगी है जो गृहस्थ जीवन में रहकर धर्म, समाज और आत्मकल्याण का संतुलन चाहते हैं।
आइए श्लोक 11 से 20 तक पढ़ते हैं और इनके माध्यम से कर्म और यज्ञ के रहस्य को सरलता से समझते हैं।
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🟦 Shlok, Anuvad & Vyakhya (श्लोक, अनुवाद, व्याख्या):
👉 श्लोक:11
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु व:।
परस्परं भावयन्त: श्रेय: परमवाप्स्यथ॥
अनुवाद:
इस यज्ञ द्वारा देवताओं का पोषण करो, और वे देवता तुम्हारा पोषण करेंगे। इस परस्पर सहयोग से तुम परम कल्याण को प्राप्त करोगे।
सरल व्याख्या:
यहाँ पर श्रीकृष्ण "पारस्परिक सहयोग" की बात कर रहे हैं। यज्ञ केवल अग्नि में आहूति देना नहीं, बल्कि कर्तव्यनिष्ठ जीवन जीना और समाज को योगदान देना भी है। जैसे हम प्रकृति को देते हैं, वैसे ही वह हमें लौटाती है।
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👉 श्लोक:12
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव स:॥
अनुवाद:
यज्ञ से संतुष्ट देवता तुम्हें आवश्यक भोग वस्तुएँ देंगे; पर जो बिना अर्पण किए उनका उपभोग करता है, वह चोर के समान है।
सरल व्याख्या:
स्वार्थपूर्वक जीवन जीना, बिना योगदान दिए समाज से लेना – यह चोरी के बराबर है। इसलिए यज्ञ भाव से ही उपभोग करना उचित है।
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👉 श्लोक:13
यज्ञशिष्टाशिन: सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषै:।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणा॥
अनुवाद:
जो यज्ञ के बाद शेष भोजन ग्रहण करते हैं, वे पापों से मुक्त होते हैं; परन्तु जो केवल अपने लिए ही पकाते हैं, वे पाप का भक्षण करते हैं।
सरल व्याख्या:
भोजन हो या धन – यदि वह यज्ञ (कर्तव्य, सेवा) से जुड़ा हो तो वह पुण्यदायक है। केवल अपने लिए जीना ही पाप है।
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👉 श्लोक:14
अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भव:।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञ: कर्मसमुद्भव:॥
अनुवाद:
सभी प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं, अन्न वर्षा से, वर्षा यज्ञ से और यज्ञ कर्म से उत्पन्न होता है।
सरल व्याख्या:
जीवन का चक्र कर्म से शुरू होकर अन्न और प्राणी के अस्तित्व तक जुड़ा है। इसीलिए कर्म और यज्ञ के बीच एक सीधा संबंध है।
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👉 श्लोक:15
कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्॥
अनुवाद:
कर्म ब्रह्म (वेद) से उत्पन्न हुआ है, और ब्रह्म अक्षर (परब्रह्म) से। इसलिए सर्वव्यापी ब्रह्म सदा यज्ञ में प्रतिष्ठित है।
सरल व्याख्या:
सच्चा यज्ञ वही है जिसमें ईश्वर की भावना हो। ब्रह्म से कर्म उत्पन्न हुआ है, इसलिए कर्म में ब्रह्म का निवास है।
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👉 श्लोक:16
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह य:।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति॥
अनुवाद:
जो व्यक्ति इस चक्र का पालन नहीं करता और केवल इंद्रियों के सुख में लगा रहता है, वह पापमय जीवन जीता है।
सरल व्याख्या:
कर्तव्यच्युत होकर केवल भोग में लगे रहना जीवन की व्यर्थता का प्रतीक है। जीवन सार्थक तभी है जब वह चक्र के अनुसार चले।
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👉 श्लोक:17
यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानव:।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते॥
अनुवाद:
जो व्यक्ति आत्मा में ही रत, आत्मा में ही संतुष्ट और आत्मा में ही तृप्त है, उसके लिए कोई कर्तव्य शेष नहीं रहता।
सरल व्याख्या:
जो आत्मज्ञानी हो गया है, उसे बाह्य कर्मों की आवश्यकता नहीं रहती। उसका जीवन स्वयं सिद्ध होता है।
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👉 श्लोक:18
नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रय:॥
अनुवाद:
उस ज्ञानी को न तो कर्म करने से कुछ प्राप्त होता है, न ही कर्म न करने से कुछ खोता है। वह किसी पर निर्भर नहीं होता।
सरल व्याख्या:
आत्मसंतुष्ट व्यक्ति न निष्क्रिय होता है, न उदासीन; बस वह स्वभाव से ही मुक्त होता है।
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👉 श्लोक:19
तस्मादसक्त: सततं कार्यं कर्म समाचर।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुष:॥
अनुवाद:
इसलिए आसक्ति रहित होकर अपना कर्तव्य सदा करो। क्योंकि बिना आसक्ति के कर्म करते हुए व्यक्ति परम प्राप्त करता है।
सरल व्याख्या:
कर्म त्यागने की बात नहीं है — श्रीकृष्ण बार-बार कहते हैं कि "कर्म करो, लेकिन आसक्ति के बिना"।
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👉 श्लोक:20
कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादय:।
लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि॥
अनुवाद:
कर्म से ही जनक आदि राजाओं ने सिद्धि प्राप्त की। इसलिए लोक-संग्रह (जनहित) के लिए भी तुम्हें कर्म करना चाहिए।
सरल व्याख्या:
धर्मात्मा राजा भी कर्म करते थे — समाज का नेतृत्व और प्रेरणा देने के लिए। इसलिए अर्जुन को भी कर्म करने से पीछे नहीं हटना चाहिए।
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